Friday, March 19, 2021

सौन्दरनन्द-महाकाव्य, सप्तदश सर्ग, अमृत की प्राप्ति:

सौन्दरनन्द-महाकाव्य, सप्तदश सर्ग, 

अमृत की प्राप्ति: 

अथैवमादेशिततत्त्वमार्गो नन्दस्तदा प्राप्तविमोक्षमार्ग:।सर्वेण भावेन गुरौ प्रणम्य क्लेशप्रहाणाय वनं जगाम। ॥१॥

जब नन्द को इस प्रकार तत्त्व-मार्ग का उपदेश किया गया और जब उसने मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर लिया तब सर्वभाव से गुरु को प्रणाम कर वह जंगल चला गया। ॥१॥

तत्रावकाशं मृदुनीलशष्पं ददर्श शान्तं तरुषण्डवन्तं ।नि:शब्दया निम्नगयोपगूढं वैडूर्यनीलोदकया वहन्त्या। ॥ २॥

वहाँ कोमल और श्यामल दूब से आच्छादित तथा वृक्षों से युक्त एक शान्त स्थान देखा, जो वैदूर्य के समान नीले जल वाली, चुपचाप बहती नदी से आलिङ्गित हो रहा था। ॥२॥

स पादयोस्तत्र विधाय शौचं शुचौ शिवे श्रीमति वृक्षमूले।मोक्षाय बद्ध्वा व्यवसायकक्षां पर्यङ्कमङ्कावाहितं बबन्ध। ॥३॥

वहाँ वह अपने पाँवों को धोकर सुन्दर पवित्र और मङ्गलमय वृक्ष-मूल में मोक्ष-प्राप्ति का निश्चय कर और पर्यङ्क आसन बाँधकर बैठ गया। ॥३॥

ऋजुं समग्रं प्रणिधाय कायं काये स्मृति चाभिमुखी विधाय। सर्वेन्द्रियाण्यात्मनि संनिधाय स तत्र योगं प्रयतः प्रपेदे। ॥४॥

अपने समग्र (ऊपरी) शरीर को सीधा कर, स्मृति को शरीर में अभिमुखी (संलग्न, केन्द्रित) कर और सब इन्द्रियों को अपने में निरुद्ध कर, वह पवित्रात्म वहाँ योगारूढ़ हुआ। ॥४॥

तत: स तत्त्वं निखिलं चिकीर्षुर्मोक्षानुकूलांश्च विधींश्चिंकीर्षन् । ज्ञानेन लोक्येन शमेन चैव चचार चेत:परिकर्मभूमौ। ॥५॥

तब वह सम्पूर्ण तत्त्व को प्राप्त करने की इच्छा से और मोक्ष के अनुकूल उपायों को करने की इच्छा से ज्ञान और शान्ति के द्वारा चित्त की कर्म-भूमि में विचरण करने लगा। ॥५॥

संघाय धैर्यं प्रणिधाय वीर्य व्यपोह्य सक्ति परिगृह्य शक्ति।प्रशान्तचेता नियमस्थचेताः स्वस्थस्ततोऽभूद्विषयेष्वनास्थः। ॥६॥

धैर्य की रक्षा कर, उद्योग का सहारा लेकर आसक्ति का विनाश कर और शक्ति का संग्रह कर, वह शान्त-चित्त, संयत-चित्त और स्वस्थ (विकार-रहित) होकर विषयों से विरक्त हो गया। ॥६॥

आतप्तबुद्धेः प्रहितात्मनोऽपि स्वभ्यस्तभावादथ कामसंज्ञा। पर्याकुलं तस्य मनश्चकार प्रावृट्सु विद्युज्जलमागतेव। ॥७॥

यद्यपि उसकी बुद्धि प्रखर थी और उसका आत्म-निश्चय दृढ़ था, तो भी अतिशय अभ्यास के कारण काम-भावना (काम-वासना) ने उसके मन को व्याकुल कर दिया, जैसे वर्षा ऋतु में बिजली आकर पानी को क्षुब्ध कर देती है। ॥७॥

स पर्यवस्थानमवेत्य सद्यश्चिक्षेप तां धर्मविघातकर्त्री।प्रियामपि क्रोधपरीतचेता नारीमिवोद्वृत्तगुणां मनस्वी। ॥८॥

इस विपरीत मानसिक अवस्था को समझकर उसने धर्म में बाधा डालने वाली उस काम-भावना को दूर हटाया, जैसे मनस्वी व्यक्ति क्रुद्ध होकर सदाचार से च्युत हुई प्यारी स्त्री को भी त्याग देता है। ॥८॥

आरब्धवीर्यश्य मनःशमाय भूयस्तु तस्याकुशलो वितर्क:।व्याधिप्रणाशाय निविष्टबुद्धेरुपद्रवो घोर इवाजगाम। ॥९॥

मानसिक शान्ति के लिए उद्योग आरम्भ करने पर उसके मन में पुनः अकुशल वितर्क (बुरे विचार) का उदय हुआ, जैसे रोग-विनाश के लिए निश्चय किये हुए के ऊपर घोर संकट आवे। ॥९॥

स तद्विधाताय निमित्तमन्यद्योगानुकूलं कुशलं प्रपेदे।आर्तायनं क्षीणबलो बलस्थं निरस्यमानो बलिनारिणेव। ॥१०॥

उस (वितर्क) के विनाश के लिए उसने योग के अनुकूल दूसरे कुशल निमित्त का सहारा लिया, जैसे बलवान् शत्रु से पराजित होता हुआ मनुष्य अपनी शक्ति के क्षीण होने पर पीडितों को आश्रय देने वाले किसी शक्तिशाली मनुष्य की शरण में जाता है। ॥१०॥

पुरं विधायानुविधाय दण्डं मित्राणि संगृह्य रिपून्विगृह्य।राजा यथाप्नोति हि गामपूर्वी नीतिर्मुमुक्षोरपि सैव योगे। ॥ ११॥

राजा जैसे नगर का निर्माण कर, दण्ड का विधान कर, मित्रों का संग्रह कर और शत्रुओं का निग्रह कर अपूर्व भूमि को प्राप्त करता है उसी प्रकार मुक्ति चाहने वाला भी योग-विधि में उसी नीति का अवलम्बन करता है। ॥११॥

विमोक्षकामस्य हि योगिनोऽपि मनः पुरं ज्ञान विधिश्च दण्डः। गुणाश्च मित्राण्यरयश्च दोषा भूमिर्विमुक्तिर्यतते यदर्थ। ॥१२॥

मोक्ष चाहने वाले योगी का मन नगर है, ज्ञान-विधि दण्ड की व्यवस्था है, सद्गुण मित्र हैं, दोष शत्रु हैं और मुक्ति वह भूमि है जिसके लिए कि वह (योगी) यत्न करता है। ॥१२॥

स दुःखजालान्महतो मुमुक्षुर्विमोक्षमार्गाधिगमे विविक्षु:।पन्थानमार्यं परमं दिद्दत्तुः शमं ययौ किंचिदुपात्तचक्षुः॥१३॥

महा-दुःख-जाल से मुक्त होने की इच्छा से, मोक्ष-मार्ग में प्रविष्ट होने की इच्छा से और उत्तम आर्य-मार्ग का दर्शन करने की इच्छा से वह ज्ञान-लाभ करके शान्ति को प्राप्त हुआ। ॥१३॥

यः स्यान्निकेतस्तमसोऽनिकेत: श्रुत्वापि तत्त्वं स भवेत्प्रमत्ः। यस्मात्तु मोक्षाय स पात्रभूतस्तस्मान्मनः स्वात्मनि संजहार। ॥१४॥

जो गृह-विहीन भिक्षु अज्ञान का घर होगा वह तत्त्व को सुनकर भी असावधान ही रहेगा। किन्तु वह तो मोक्ष का पात्र हो गया था, इसलिए उसने अपने मन का अपने में ही संहार (निग्रह) कर लिया। ॥१४॥

संभारतः प्रत्ययतः स्वभावादास्वादतो दोषविशेषतश्च।अथात्मवान्नि: सरणात्मतश्च धर्मेषु चक्रे विधिवत्परीक्षां। ॥१५॥

तब मुक्ति-मार्ग में लगे हुए उस संयतात्म ने संभार प्रत्यय (कारण) स्वभाव आस्वाद और दोष-विशेष की दृष्टि से धर्मो (पदार्थों) की विधिवत् परीक्षा की। ॥१५॥

स रूपिणं कृत्स्नमरूपिणं च सारं दिद्दक्षुर्विचिकाय कायं।अथाशुचिं दुःखमनित्यमस्वं निरात्मकं चैव चिकाय कायं। ॥१६॥

उसने रूपवान् और अरूपवान् सम्पूर्ण सार देखने की इच्छा से शरीर का विश्लेषण किया और इसको अपवित्र, दुःखमय, अनित्य, शून्य और अनात्म समझा। ॥१६॥

अनित्यतस्तत्र हि शून्यतश्च निरात्मतो दुःखत एव चापि।मार्गप्रवेकेण स लौकिकेन क्लेशद्रुमं संचलयांचकार। ॥१७॥

शरीर को अनित्य, शून्य, अनात्म और दुःखमय देखकर उसने लौकिक उत्तम मार्ग द्वारा क्लेशों के वृक्ष को हिला दिया। ॥१७॥

यस्माद्भूत्वा भवतीह सर्वं भूत्वा च भूयो न भवत्यवश्यं। सहेतुकं च क्षयिहेतुमच्च तस्मादनित्यं जगदित्यविन्दत्। ॥१८॥  

क्योंकि इस संसार में अवश्य ही जो पहले नहीं था वह होता है और जो हुआ है वह फिर अभाव को प्राप्त होता है और सब कुछ हेतु-युक्त है और यह हेतु (कारण) विनाशवान् है, इसलिए उसने जगत को अनित्य समझा। ॥१८॥

यत: प्रसूतस्य च कर्मयोगः प्रसज्यते बन्धविघातहेतुः।दुःखप्रतीकारविधौ सुखाख्ये ततो भवं दुःखमिति विपश्यत् । ॥१९॥

क्योंकि जिसका जन्म होता है वह वध-बन्धन के हेतुरुप कर्मों के सम्पर्क में निरन्तर रहता है और क्योंकि दुःख-प्रतीकार के उपाय को ही सुख समझ लिया जाता है, इसलिए उसने संसार को दुःखमय देखा। ॥१९॥

यतश्च संस्कारगतं विविक्तं न कारकः कश्चन वेदको वा।सामग्रयत: संभवाति प्रवृत्ति: शून्यं ततो लोकमिमं ददर्श। ॥२०॥

क्योंकि व्यक्ति संस्कारों* का बना हुआ है, कर्ता या ज्ञाता कोई नहीं है और क्योंकि (हेतु-प्रत्ययों की) सामग्री से प्रवृत्ति होती है इसलिए उसने इस संसार को शून्य समझा। ॥२०॥ (*दो से अधिक चीजें मिलकर बनी चीज़ संस्कार हैं)

यस्मान्निरीहं जगदस्वतन्त्रं नैश्वर्यमेकः कुरुते क्रियासु। तत्तत्प्रतीत्य प्रभवन्ति भावा निरात्मकं तेन विवेद लोकं। ॥२१॥

क्योंकि संसार निरीह और परतन्त्र है, कार्यों का कोई ईश्वर नहीं है, और क्योंकि कारण के आश्रय से ही सब की उत्पत्ति होती है, इसलिए उसने संसार को अनात्म समझा। ॥२१॥

ततः स वातं व्यंजनादिवोष्णे काष्ठाश्रितं निर्मथनादिवाग्निं। अन्तःक्षितिस्थं खननादिवाम्भो लोकोत्तरं वर्त्मं दुरापमाप। ॥२२॥

जैसे कोई गर्मी में व्यंजन डुलाकर हवा निकाले, या काठ में रहने वाली अग्नि को रगड़कर निकाले या पृथ्वी के भीतर से पानी खोद निकाले, वैसे ही उसने (उद्योगपूर्वक) अलौकिक दुर्लभ मार्ग प्राप्त किया। ॥२२॥

सज्ज्ञानचापः मृतिवर्म बद्ध्वा विशुद्धशीलव्रतवाहनस्थः।क्लेशारिभिश्चित्तरणाजिरस्थैः सार्धं युयुत्सुर्विजयाय तस्थौ। ॥२३॥

सच्चा ज्ञानरूपी धनुष लेकर, स्मृतिरूपी कवच पहनकर और विशुद्ध शीलव्रतरूपी वाहन पर आरूढ़ होकर वह चित्त के रणाङ्गन में स्थित क्लेशरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा से विजय प्राप्त करने के लिए खड़ा हुआ। ॥२३॥

ततः स बोध्यङ्गशितात्तशस्त्रः सम्यक्प्रधानोत्तमदाहनस्थः।मार्गाङ्गमातङ्गवता बलेन शनैः शनैः क्लेशचमूं जगाहे। ॥ २४॥

तब (सात) बोधि-अङ्गरूपी तेज शस्त्र लेकर, सम्यक उद्योगरूपी वाहन पर सवार होकर, (आर्य अष्टाङ्गिक) मार्ग के (आठ) अङ्गरूपी हाथियों की सेना के साथ उसने धीरे धीरे क्लेशों की सेना में प्रवेश किया। ॥२४॥

स स्मृत्युपस्थानमयैः पृषत्कैः शत्रुन्विपर्यासमयान् क्षणेन।दुःखस्य हेतुंश्चतुरश्चतुर्भिः स्वैः स्वैः प्रचारायतनैर्ददार। ॥ २५॥

उसने चार स्मृति-उपस्थानरूपी तीरों से, जो अपने अपने क्षेत्र में चल रहे थे, दुःख के कारण-स्वरूप चार मिथ्याज्ञानरूपी शत्रुओं को क्षण भर में विदीर्ण कर डाला। ॥२५॥

आर्यैर्बलैः पञ्चभिरेव पञ्च चेत: खिलान्यप्रतिमैर्बभञ्ज। मिथ्याङ्गनागांश्च तथाङ्गनागैर्विनिर्दुधावाष्टभिरेव सोऽष्टौ। ॥२६॥

उसने अनुपम पाँच आर्य-बलों के द्वारा पाँच मानसिक खिलौ (किलों, बाधाओं) को तोड़ डाला और (आर्य मार्ग के) आठ अङ्ग-रूपी हाथियों द्वारा आठ मिथ्या अङ्गरूपी हाथियों को दूर भगाया। ॥२६॥

अथात्मदृष्टिं सकलां विधूय चतुर्षु सत्येष्वकरथंकथः सन्।विशुद्धशीलव्रतदृष्टधर्मा धर्मस्य पूर्वा फलभूमिमाप। ॥२७॥

तब आत्म-दृष्टि को सर्वथा उन्मूलित कर, चार सत्यों के विषय में संशय-रहित होकर और विशुद्ध शील-व्रत के द्वारा धर्म का दर्शन कर उसने धर्म की प्रथम फल-भूमि को प्राप्त किया। ॥२७॥

स दर्शनादार्यचतुष्टयस्य क्लैशैकदेशस्य च विप्रयोगात्।प्रत्यात्मिकाच्चापि विशेषलाभात्प्रत्यक्ष तो ज्ञानिसुखस्य चैव। ॥२८॥

उसने आर्य-चतुष्ट्य का दर्शन किया, क्लैशों के एक अंश का परित्याग किया, आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया और ज्ञानियों को होने वाले सुख का साक्षात्कार किया। ॥२८॥

दार्ढ्यात्प्रसादस्य धृते: स्थिरत्वात्सत्येष्वसंमूढतया चतुर्षु।शीलस्य चाच्छिद्रतयोत्तमस्य निःसंशयो धर्मविधौ बभूव। ॥२९॥

उसकी श्रद्धा दृढ़ हुई, धृति स्थिर हुई, चार सत्यों के बारे में उसका अज्ञान दूर हुआ, उसका उत्तम शील छिद्र-रहित हुआ; अत: वह धर्मा-चरण में संशय-रहित हुआ। ॥२९॥

कुदृष्टिजालेन स विप्रयुक्तो लोकं तथाभूतमवेक्षमाणः।ज्ञानाश्रयां प्रीतिमुपाजगाम भूयः प्रसादं च गुरावियाय। ॥३०॥

कुदृष्टियों के जाल से मुक्त होकर, लोक को वास्तविक अवस्था में देखता हुआ वह ज्ञान के आश्रय से होने वाली प्रीति (सुख) को प्राप्त हुआ और गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़ गई। ॥३०॥

यो हि प्रवृत्ति नियतामवैति नैवान्यहेतोरिह नाप्यहेतोः।प्रतीत्य तत्तत्समवैति तत्तत्स नैष्ठिकं पश्यति धर्ममार्यं। ॥३१॥ 

प्रवृत्ति का नियमन (व्यवस्था) किसी दूसरे (मिथ्या) कारण से या विना कारण के ही नहीं होता, कितु (उचित) कारण के आश्रय से ही सब कुछ होता है, ऐसा जो समझता है वह नैष्ठिक आर्य धर्म को देखता है। ॥३१॥

शान्तं शिवं निर्जरसं विरागं निःश्रेयसं पश्यति यश्च धर्मं।तस्योपदष्टारमथार्यवर्यं स प्रेक्षते बुद्धमवाप्तचक्षु:। ॥३२॥

जो शान्त, मङ्गलमय, जरा-रहित, राग-रहित और परम कल्याण-कारी धर्म को तथा उसके उपदेश करने वाले आर्य-श्रेष्ठ को देखता है, वह ज्ञान प्राप्त करता है और बुद्ध को देखता है। ॥३२॥

यथोपदेशेन शिवेन मुक्तो रोगादरोगो भिषजं कृतज्ञः।अनुस्मरन्पश्यति चित्तदृष्ट्या मैत्र्या च शास्त्रज्ञतया च तुष्टः। ॥३३॥

जिस प्रकार (वैद्य के) सत्परामर्श से रोग-मुक्त हुआ स्वस्थ मनुष्य वैद्य के प्रति कृतज्ञ होकर उसको स्मरण करता हुआ अपनी चित्त-दृष्टि से देखता है और उसकी मैत्री एवं शास्त्र-ज्ञान से सतुष्ट होता है,। ॥३३॥

आर्येण मार्गेण तथैव मुक्तस्तथागतं तत्वविदार्यतत्वः।अनुस्मरन्पश्यति कायसाक्षी मैत्र्या च सर्वज्ञतया च तुष्टः। ॥३४॥

उसी प्रकार आर्य मार्ग से चलकर मुक्त हुआ तत्वज्ञानी आर्य-तत्व वाला काय-साक्षी (काया से ही परम सत्य का साक्षात्कार करने वाला) तथागत को स्मरण करता हुआ (अपनी चित्त-दृष्टि से) देखता है और उनकी मैत्री एवं सर्वज्ञता से संतुष्ट होता है। ॥३४॥

स नाशकैर्दृर्ष्टिगतैर्विमुक्तः पर्यन्तमालोक्य पुनर्भवस्य। भक्त्वा घृणां क्लेशविजृम्भितेषु मृत्योर्न तत्रास न दुर्गतिभ्य:। ॥३५॥

विनाशक विचारों (धारणाओं) से मुक्त होकर, पुनर्जन्म का अन्त देखकर और क्लशों से घृणा करके वह मृत्यु या दुर्गति से भय-भीत नहीं हुआ। ॥३५॥

त्वक्स्न्नायुमेदोरुधिरास्थिमांसकेशादिनामेध्यगणेन पूर्णं।ततः स कायं समवेक्षमाणः सार विचित्त्याण्वपि नोपलेभे। ॥३६॥

उसने त्वचा, स्नायु, चर्बी, रुधिर, हड्डि, मांस, केश आदि अपवित्र वस्तुओं से भरे हुए शरीर को अच्छी तरह देखा और चिन्तन करने पर थोड़ा सा भी सार उसमें नहीं पाया। ॥३६॥

स कामरागप्रतिघौ स्थिरात्मा तेनैव योगेन तनू चकार।कृत्वा महोरस्कतनुस्तनू तौ प्राप द्वितीयं फलमार्यधर्मे। ॥३७॥

उस स्थिरात्म ने योग द्वारा काम-राग (काम-इच्छा) और प्रतिघ (प्रतिहिंसा) को क्षीण किया और इन दोनों को क्षीण करके उस विशाल वक्षस्थल वाले ने आर्य धर्म का दूसरा फल (सकृदागामि-फल) पाया। ॥३७॥

स लोभचापं परिकल्पवाणं रागं महावैरिणमल्पशेषं।कायस्वभावाधिगतैर्बिभेद योगायुधास्त्रैरशुभापृषत्कै:। ॥३८॥

उसने लोभरूपी धनुष वाले सङ्कल्परूपी तीर वाले अल्पावशिष्ट राग नामक महाशत्रु को शरीर के स्वभाव (पर चिन्तन करने) से प्राप्त हुए अशुभ-भावना रूपी तीरों तथा यौगिक अस्त्र-शस्त्रों से विदीर्ण किया। ॥३८॥

द्वेषायुधं क्रांधविकीर्णबाणं व्यापादमन्तः प्रसवं सपत्नं।मैत्रीपृषत्कैर्धृतितूणसंस्थैः क्षमाधनुर्ज्याविसृतैर्जधान। ॥३९॥

द्वेष रूपी शस्र वाले, क्रोध रूपी बिखरे बाण वाले व्यापाद (द्रोह, प्रतिहिंसा) नामक भीतरी शत्रु को धृति रूपी तरकस में रहने वाले तथा क्षमारूपी धनुष की प्रत्यञ्चा से छूटने वाले मैत्रीरूपी तीरों से मार डाला। ॥३९॥

मूलान्यथ त्रीण्यशुभस्य वीरस्त्रिभिर्विमोक्षायतनैश्चकर्त।चमूमुखस्थान्धृतकार्मु कांस्त्रीनरीनिवारिस्त्रिभिरायसाग्रै:। ॥४०॥

उस वीर ने तीन अकुशल-मूलों (लोभ द्वैष मोह) को तीन विमोक्ष-आयतनों (विमोक्ष-मुखों) से काट डाला, जैसे कोई शत्रु सेना के अग्रभाग में धनुष लेकर खड़े हुए तीन शत्रुओं को तीन लोहाग्र तीरों से काट डाले। ॥४०॥

स कामधातोः समतिक्रमाय पार्ष्णिग्रहांस्तानभिभूय शत्रून्। योगादनागामिफलं प्रपद्य द्वारीव निर्वाणपरस्य तस्थौ। ॥४१॥

काम-धातु का अतिक्रमण करने के लिए पीछे से आक्रमण करने वाले उन शत्रुओं को जीतकर, योग द्वारा अनागामि-फल प्राप्त कर, वह मानो निर्वाण-नगर के (प्रवेश-) द्वार पर खड़ा हुआ। ॥४१॥

कामैर्विविक्तं मलिनैश्च धर्मैर्वितर्कवच्चापि विचारवच्च।विवेकर्ज प्रीतिसुखोपपन्नं ध्यानं ततः स प्रथमं प्रपेदे। ॥ ४२॥

तब वह कामों (काम-वासनाओं) से रहित, अकुशल धर्मों से रहित, वितर्क-युक्त, विचार-युक्त, वितर्क से उत्पन्न तथा प्रीति व सुख से युक्त प्रथम ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥४२॥

कामाग्निदाहेन स विप्रमुक्तो ह्वादं परं ध्यानसुखादवाप।सुखं विगाह्याप्स्विव घर्मखिन्नः प्राप्येव चार्थे विपुलं दरिद्रः। ॥४३॥

कामाग्नि के दाह से मुक्त होकर उसने ध्यान-सुख से (होनेवाला) परम-आनन्द प्राप्त किया, जैसे कि गर्मी से पीडित मनुष्य जल में सुख-पूर्वक अवगाहन करके या दरिद्र मनुष्य विपुल सम्पत्ति पाकर अत्यन्त आनन्दित होता है। ॥४३॥

तत्रापि तद्धर्मगतान्वितर्कान् गुणागुणे च प्रसृतान्विचारान्। बुद्ध्वा मनःक्षोभकरानशान्तांस्तद्विप्रयोगाय मतिं चकार। ॥४४॥

वहाँ भी उन (विविध) धर्मों के सम्बन्ध में होने वाले वितर्क और उनके गुणावगुणों के सम्बन्ध में उठे हुए विचार मन को क्षुब्ध करने वाले और अशान्ति-प्रद हैं, ऐसा समझकर उसने उनका नाश करने के लिए निश्चय किया। ॥४४॥

क्षोभं भ्रकुर्वन्ति यथोर्मयो हि धीरप्रसन्नाम्बुवहस्य सिन्धो:। एकाग्रभूतस्य तथोर्मिभूताश्चित्ताम्भसः क्षोभकरा वितर्क:। ॥४५॥

जिस प्रकार शान्त और निर्मल जल वाली नदि तरंगों (के उठने) से क्षुब्ध होती है, उसी प्रकार एकाग्रता को प्राप्त चित्तरूपी-जल वितर्क रूपी तरंगों (के उठने) से क्षुब्ध होता है। ॥४५॥

खिन्नस्य सुप्तस्य च निर्वृतस्य बाधं यथा संजनयन्ति शब्दा:। अध्यात्ममैकाग्रयमुपागतस्य भवन्ति बाधाय तथा वितर्का:। ॥४६॥

जिस प्रकार थककर सुखपूर्वक सोये हुए मनुष्य को शब्दों से बाधा होती है, उसी प्रकार जिसने आध्यात्मिक (भीतरी) एकाग्रता प्राप्त कर ली है उसको वितर्को से बाधा होती है। ॥४६॥

अथावितर्कं क्रमशोऽविचारमेकाग्रभावान्मनसः प्रसन्नं।समाधिजं प्रीतिसुखं द्वितीयं ध्यानं तदाध्यात्मशिवं स दध्यौ। ॥४७॥

तब वह क्रमशः वितर्क-रहित, विचार-रहित, मानसिक एकाग्रता के कारण शान्त, समाधि से उत्पन्न, प्रीति व सुख से युक्त, तथा आध्यात्मिक कल्याण वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥४७॥

तद्ध्यानमागम्य च चित्तमौनं लेभे परां प्रीतिमलब्धपूर्वी।प्रीतौ तु तत्रापि स दोषदर्शी यथा वितर्केष्वभवत्तथैव। ॥४८॥

तब मानसिक मौन वाले उस ध्यान (अवस्था) में आकर उसने उत्तम और अपूर्व प्रीति पाई, किन्तु उसने उस प्रीति में भी दोष देखा जैसे कि वितर्कों में (दोष) देखा था। ॥४८॥

प्रीतिः परा वस्तुनि यत्र यस्य विपर्ययात्तस्य हि तत्र दुःखं।प्रीतावतः प्रेक्ष्य स तत्र दोषान्प्रीतिक्षये योगमुपारुरोह। ॥४९॥

क्योंकि जिसको जिस किसी वस्तु में बड़ी प्रीति होती है उसको उस (प्रीय) वस्तु के विपर्यय (विनाश, विपरीत) होने पर उसमें दुःख होता है; इसलिए प्रीति में दोष देखकर प्रीति का विनाश करने के लिए वह योगारूढ़ हुआ। ॥४९॥

प्रीतेर्विरागात्सुखमार्यजुष्टं कारयेन विन्दन्नथ संप्रजानन् ।उपेक्षक: स स्मृतिमान्व्यहार्षीदुध्यानं तृतीयं प्रतिलभ्य धीरः। ॥५०॥

प्रीति से वैराग्य होने पर, शरीर से आर्य-जन-सेवित (आर्योंचित) सुख का अनुभव करता हुआ, ज्ञान (होश), उपेक्षा और स्मृति, (सावधानी, जागरूकता) से युक्त हो, तृतीय ध्यान को प्राप्त हो, वह धैर्यपूर्वक विहार करने लगा। ॥५०॥

यस्मात्परं तत्र सुखं सुखेभ्यस्ततः परं नास्ति सुखप्रवृत्ति:। तस्माद्बभाषे शुभकृत्स्न्नभूमिं परापरज्ञ: परमेति मैत्र्या। ॥५१॥

क्योंकि उस अवस्था में होने वाला सुख सब सुखों से उत्तम है और उसके बाद सुख का प्रवाह (सातत्य) नहीं रहता है, इसलिए उस परापरज्ञ (उत्तम और निकृष्ट अवस्था को जानने वाले) ने मैत्री के कारण उस उत्तम अवस्था को शुभकृत्स्न (-देवों की) भूमि समझा। ॥५१ ॥

ध्यानेऽपि तत्राथ ददर्श दोषं मेने परं शान्तनिञ्जमेव।आभोगतोऽपीञ्जयति स्म तश्य चित्तं प्रवृत्तं सुखमित्यजस्रं। ॥५२॥

उसने उस (देवों की भूमि) ध्यान में भी दोष देखा और उत्तम अवस्था को शान्त और निर्विकार समझा। परिपूर्णं होने पर भी वह अनुभूत (प्राप्त) सुख उसके चित्त में विकार (अस्थिरता) पैंदा करने लगा। ॥५२॥

यत्रेञ्जितं स्पन्दितमस्ति तत्र यत्रास्ति च स्पन्दितमस्ति दुःखं। यस्मादतस्तत्सुखमिञ्जकत्वात्प्रशान्तिकामा यतयस्त्यजन्ति। ॥५३॥

क्योंकि जहाँ विकार (अस्थिरता) है वहाँ कम्पन है और जहाँ कम्पन है वहाँ दुःख है, इसलिए शान्ति चाहने वाले यति (साधक) उस सुख को विकारवान् समझकर छोड़ देते हैं। ॥५३॥

अथ प्रहाणात्सुखदुःखयोश्च मनोविकारस्य च पूर्वमेव।दध्यावुपेक्षास्मृतिमद्विशुद्धं ध्यानं तथा दुःखसुखं चतुर्थे। ॥ ५४॥

तब सुख-दुःख का परित्याग कर और मनोविकार (सौमनस्य-दौर्मनस्य) का तो पहले ही परित्याग करके वह दुःख-सुख से रहित उपेक्षा व स्मृति से युक्त विशुद्ध चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥५४॥

यस्मात्तु तस्मिन्न सुखं न दुःखं ज्ञानं च तत्रास्ति तदर्थचारि। तस्मादुपेक्षास्मृतिपारिशुद्धिर्निरुच्यते ध्यानविधौ चतुर्थे। ॥५५॥

क्योंकि उस (ध्यान) में न सुख है, न दुःख है और है उसके लक्ष्य का साधक ज्ञान; इसलिए चतुर्थ ध्यान- विधि में स्मृति और उपेक्षा के द्वारा शुद्धि होती है, ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जाता है। ॥५५॥

ध्यानं स निश्रित्य ततश्चतुर्थमर्हत्वलाभाय मतिं चकार।संधाय मैत्रं बलवन्तमार्यं राजेव देशानजितान् जिगीषु:। ॥५६॥

तब चतुर्थ ध्यान का आश्रय लेकर उसने अर्हत्व (जीवन्मुक्ति) प्राप्त करने का निश्चय किया, जैसे राजा बलवान् आर्य मित्र से सन्धि करके, नही जीते हुए देशों को जीतना चाहता है। ॥५६॥

चिच्छेद कात्स्नर्येन ततः स पञ्च प्रज्ञासिना भावनयेरितेन। ऊर्ध्वंगमान्युत्तमबन्धनानि संयोजनान्युत्तमबन्धनानि। ॥५७॥

तब उसने भावना द्वारा सञ्चालित प्रज्ञारूपी तलवार से कल्याण के बाधक पांच ऊर्ध्वगामी (ऊर्ध्वभागीय) तथा कल्याण के बाधक पाँच (अवरभागीय) संयोजनों (बन्धनों) को पूरा पूरा काट डाला। ॥५७॥

बोध्यङ्गनागैरपि सप्तभिः स सप्तैव चित्तानुशयान्ममर्द।द्वीपानिवोपस्थितविप्रणाशान कालो प्रहै: सप्तभिरेव सप्त। ॥५८॥

उसने सात बोधि-अङ्गरूपी हाथियों द्वारा सात चित्त-अनुशयों (चित्त-मलों) को रगड़ दिया, जैसे काल सात ग्रहों के द्वारा उपस्थित-विनाश (जिनका विनाश समीप आ गया हो ऐसे) सात द्वीपो को नष्ट कर देता है। ॥५८॥

अग्निद्रुमाज्याम्बुषु या हि वृत्तिः कबन्धवाय्वग्निदिवाकराणां। दोषेषु तां वृत्तिमियाय नन्दो निर्वापणोत्पाटनदाहशोषै:। ॥५९॥

अग्नि, वृक्ष, घी और पानी के प्रति (क्रमशः) जल, वायु, अग्नि और सूर्य का जो आचरण (कार्य) होता है दोषों के प्रति नन्द ने प्रशमन, उन्मूलन, दहन और शोषण द्वारा वही आचरण किया। ॥५९॥

इति त्रिवेगं त्रिझषं त्रिवीचमेकाम्मसं पञ्चरयं द्विक्कूलं।द्विग्राहमष्टाङ्गवता प्लवेन दुःखार्णवं दुस्तरमुत्ततार। ॥६० ॥

इस प्रकार तीन वेग वाले, तीन मछलियों वाले, तीन तरंगों वाले, एक जल वाले, पाँच वेग वाले, दो तीर वाले और दो ग्राह वाले दुस्तर दुःख-सागर को आठ अङ्गवाली नांव से पार किया। ॥६०॥

अर्हत्वमासाद्य स सत्क्रियार्हो निरुत्सुको निष्प्रण्यो निराशः। वीभीर्विंशुग्वीतमदो विराग: स एव धृत्यान्य इवाबभासे। ॥६१॥

अर्हत्व प्राप्त कर वह पूज्य उत्सुकता, स्नेह, आशा, भय, शोक, मद और राग से रहित होकर धैर्यं के कारण दूसरा-जैसा दिखाई पड़ा। ॥६१।।

भ्रातुश्च शास्तुश्च तयानुशिष्ट्या नन्दस्ततः स्वेन च विक्रमेण। प्रशान्तचेताः परिपूर्णकार्यो वाणीमिमामत्मगतां जगाद। ॥६२॥

भाई और उपदेशक के उस उपदेश से तथा अपने पराक्रम से जब उसका चित्त शान्त और कार्य पुरा हो गया तब अपने ही मन में उसने यो कहाः। ॥६२॥

नमोऽस्तु तस्मै सुगताय येन हितैषिणा मे करुणात्मकेन।बहूनि दुःखान्यपवर्तितानि सुखानि भूयांस्युपसंहृतानि। ॥६३॥

"उन सुगत (बुद्ध) को प्रणाम करता हूँ, जिन हितैषी करुणात्मक ने मेरे अनेक दुःख दूर किये और असीम सुख दिये।" ॥६३॥

अहं ह्यनार्येण शरीरजेन दुःखात्मके वर्त्मनि कृष्यमाणः।निवर्तितस्तद्वचनाङकुशेन दर्पान्वितो नाग इवाङ्कुशेन। ॥६४॥

अनार्य शरीरज (काम) द्वारा मैं दुःखात्मक मार्ग में घसीटा जा रहा था; किंतु उनके वचनरूपी अङ्कुश द्वारा मैं ऐसे लौटा लिया गया जैसे अङ्कुश द्वारा मत्त हाथी लौटाया जाता है। ॥६४॥

तस्याज्ञया कारुणकस्य शास्तुर्हृदिस्थमुत्पाट्य हि रागशल्यं। अद्यैव तावत्सुमहत्सुखं मे सर्वेक्षये किंबत निर्वृतस्य। ॥६५॥

उन कारुणिक शास्ता की आज्ञा से हृदय में रहने वाले रागरूपी शल्य को निकालकर मैं आज ही ऐसा महान् सुख अनुभव कर रहा हूँ, फिर सब (पदार्थों) को क्षय होने के बाद निर्वाण होने पर क्या कहना ? ॥६५॥

निर्वाप्य कामाग्निमहं हि दीप्तं धृत्यम्बुना पावकमम्बुनेव।ह्रादं परं सांप्रतमागतोऽस्मि शीतं हृदं धर्म इवावतीर्ण:। ॥ ६६॥

जैसे जल से अग्नि को शान्त करते हैं वैसे ही धैर्यरूपी जल से प्रज्वलित कामाग्नि को शान्त करके मैं सम्प्रति, गर्मी में शीतल सरोवर में उतरे हुए के समान, अत्यन्त आल्हादित हो रहा हूं। ॥६६॥

न मे प्रीयं किंचन नाप्रियं मे न मेऽनुरोधोऽस्ति कुत्तो विरोध:। तयोरभावात्सुखिताऽस्मि सद्या हिमातपाभ्यामिव विप्रमुक्त:। ॥६७॥

मुझे न कुछ प्रिय है न अप्रिय, न अनुरोध (चाह) न विरोध इन दोनों के अभाव से मैं अब, सर्दी-गर्मी (के प्रभाव) से मुक्त हुए के समान, सुखी हूँ। ॥६७॥

महाभयात्क्षेममिवोपलभ्य महावरोधादिव विप्रमोक्षं।महार्णवात्पारमिवाप्लवः सन्भीमान्धकारादिव च प्रकाशं। ॥६८॥

महा-विपत्ति से कुशल-क्षेम प्राप्त करने वाले के समान महा-बन्धन से मुक्ति पाने वाले के समान, नाव के बिना ही महासागर से पार पाने-वाले के समान, भीषण अन्धकार से (निकलकर) प्रकाश पाने वाले के समान, ॥६८॥

रोगादिवारोग्यमसह्यरूपादृणादिवानृण्यमनन्तसंख्यात्।द्विषत्सकाशादिव चापवानं दुर्भिक्षयोगाच्च यथा सुभिक्षं। ॥६९॥

असह्य रोग से आरोग्य पाने वाले के समान, अ्नन्त-राशि ऋण से ऊऋण होने वाले के समान, शत्रु के समीप से भाग निकलने वाले के समान और अकाल से सुकाल में आने वाले के समान, ॥६९॥

तद्वत्परां शान्तिमुपागतोऽहं यस्यानुभावेन विनायकस्य।करोमि भूयः पुनरुक्तभस्मै नमो नमोऽर्हाय तथागताय। ॥७०॥

मैं जिन विनायक (बुद्ध) की कृपा से परम शांति को प्राप्त हुआ हूँ उन पूज्य तथागत को बार बार प्रणाम करता हूँ। ॥७०॥

येनाहं गिरिमुपनीय रुक्मशृङ्गं स्वर्ग च प्लवगवधूनिदर्शनेन। कामात्मा त्रिदिवचरीभिरङ्गनाभि-निष्कृष्टो युवतिमये कलौ निमग्न:। ॥७१॥

जिन्होंने मुझे कामासक्त तथा युवतिमय पाप में डूबे हुए को स्वर्ण-शिखर पर्वत पर और स्वर्ग में ले जाकर शाखामृगी के दृष्टान्त द्वारा तथा दिव्याङ्गनाओं (अप्सराओं) के द्वारा बाहर निकाला, ॥७१॥

तस्माच्च व्यसनपरादनर्थपङ्का-दुत्कृष्य क्रमशिथिलः करीव पङ्कात्शान्तेऽस्मिन्दिरजसि विज्वरे विशाके सद्धर्मे वितमसि नैंष्ठिके विमुक्तः। ॥७२॥

और जिन्होंने मुझे उस विपत्ति-प्रद अनर्थरूपी पङ्क से, जैसे थके हुए हाथी को कीच़ड से बाहर निकाल कर इस शांत, निर्मल, ताप-रहित, शोक-रहित, तम-रहित नैष्ठक सद्धर्म में छोड़ (रख) दिया, ॥७२॥

तं वन्द परमनुकम्पकं महर्षिमूर्ध्नाहं प्रकृतिगुणज्ञमाशयज्ञं।संबुद्धं दशबलिनं भिषक्प्रधानं त्रातारं पुनरपि चास्मि संनतस्तं। ॥७३॥

उन (प्राणियों के) प्रकृति गुण और आशय को जानने वाले परमदयालु महर्षि बुद्ध, दश-बल-धारी श्रेष्ठ चिकित्सक और त्राता को शिर नवाकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें फिर से प्रणाम करता हूं। ॥७३॥

महाकाव्ये सौन्दरनन्दऽसृताधिगमो नाम सप्तदशः सर्गः ।

सौन्दरनन्द महाकाव्य में "अमृत-प्राप्ति" नामक सप्तदश (१७ वा) सर्ग समाप्त ।




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