Sunday, January 17, 2021

बोधिसत्व का चिन्तन-नैरात्म

बोधिसत्त्व के दर्शन चिन्तन को एक शब्द द्वारा व्यक्त किया जा सकता हैं और वह शब्द है 'प्रज्ञा'। प्राणियों एवं वस्तुओं के विषय में यथाभूत ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा दु:ख का नाश करके सुख प्रदान करती हैं, यह बोधिदात्री एवं मुक्तिदायिनी हैं। 

अनित्यता का ज्ञान होना प्रज्ञा का प्रथम लक्षण हैं। संसार परिवर्तनशील है, इसके सभी प्राणी एवं सारी वस्तुएँ अनित्य हैं। इस तथ्य का बोध प्रज्ञा की पहचान हैं। यह शरीर आत्मा रहित हैं। सभी प्राणी और सभी धर्म अनात्मक एवं निरात्मक हैं। यहाँ कोई चीज़ ऐसी नहीं हैं जिसको कोई व्यक्ति 'अपना', 'मेरा' अथवा 'मैं' कह सकता हैं। आत्मा की सत्ता का विचार एक भयंकर भ्रान्ति हैं, एक महामारी हैं, जिससे प्राणी पीड़ित एवं परेशान रहते हैं। यही विचार अहंकार एवं ममकार का मूल स्रोत हैं और सारे क्लेश इसी विचार से उत्पन्न होते हैं। निर्वाण अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आत्मवाद से छुटकारा होना परमावश्यक हैं। आपके सामने दो विकल्प हैं आत्मा और मोक्ष। दोनो में से आप एक को चुन सकते हैं। संसार में भ्रमण करना और दु:ख-सुख भोगना पसन्द हैं तो आत्मवाद अपनाइये, अकथनीय, अचिन्तनीय एव निरविकल्प शान्ति का साक्षात्कार करना पसन्द हैं तो मोक्ष की गवेषणा कीजिये। मोक्ष में न तो आत्मा हैं और न शरीर। जहां आत्मा का ही अस्तित्व नही रहता वहा परमात्मा का विचार उत्पन्न नहीं हो सकता हैं। अतएव सुख और दु:ख, आत्मा और परमात्मा, जीवन और जगत, कर्म और फल, पुण्य और पाप, मैं और आप, संसार और निर्वाण आदि के भेद मोक्ष में नहीं होते हैं। नैरात्म्य-दर्शन ही प्रज्ञा हैं। यही बोधिसत्व के चिन्तन का हृदय हैं। नैरात्म्य को शुन्यता भी कहते हैं क्योंकि वह विकल्पों, प्रपन्चो, धारणाओं एवं गुणों से सर्वथा मुक्त हैं। नैरात्म्य अथवा शून्य कोई चीज़ या वस्तु नहीं हैं, उसमें या उसकी कोई चीज़ या वस्तु भी कहते हैं। उसको आप 'कुछ' भी नहीं कह सकते हैं। कुछ भी कहना प्रपन्च करना हैं, वह मन व वाणी का विषय नहीं हैं। सभी मतो, दृष्टियों, विचारों, कल्पनाओ, रूपों एवं संकेतो का अतिक्रमण करके यह नैरात्म्य अथवा शून्य अथवा परमार्थ नामो से अभिहित निर्वाण अथवा मोक्ष सिद्ध होता हैं। 

प्रश्न उठता हैं जब आदमी की ही सत्ता नहीं हैं तो निर्वाण किसका होता हैं? यह प्रश्न अविद्या, अहंकार एवं भय के मिश्रण से हुई स्थिति में उत्पन्न होता हैं। 'मेरी आत्मा', 'मेरी आत्मा की रक्षा', 'मेरी आत्मा की मुक्ति आदि इस प्रकार के विचार अविद्या की उपज हैं। 

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