Tuesday, January 5, 2021

सौन्दरनन्द, आदि-प्रस्थान

सौन्दरनन्द (महाकाव्य) चतुर्दश सर्ग, आदि-प्रस्थान 

अथ स्मृतिकवाटेन पिधायेन्द्रियसंवरं । भोजने भव मात्राज्ञो ध्यानायानामयाय च ।।१॥

स्मृतिरूपी किवाड़ से इन्द्रियरूप बांध को बन्द करके ध्यान और आारोग्य के लिए भोजन की मात्रा जानो ॥१॥ 

प्राणापानौ निगृह्रति ग्लानिनिद्रे प्रयच्छति । कृतो ह्यत्यर्थमाहारो विहन्ति च पराक्रमं ॥२॥

यदि अधिक भोजन किया जाय तो वह प्राण-वायु और अपान-वायु में रुकावट डालता हैं, आलस्य और नींद लाता हैं, तथा पराक्रम की हत्या करता हैं ।।२॥

यथा चात्यर्थमाहारः कृतोंऽनर्थाय कल्पते ।उपयुक्तस्तथात्यल्पो न सामर्थ्याय कल्पते ॥३॥

जिस प्रकार अधिक भोजन करने से अनर्थ होता हैं उसी प्रकार अत्यल्प भोजन करने से शक्ति नहीं होती हैं॥३॥

आचयं द्युतिमुत्साहं प्रयोगं बलमेव च। भोजनं कृतमत्यल्पं शरीरस्यापकर्षनि ॥४॥

अत्यल्प भोजन करने से शरीर की पुष्टि, कान्ति, उत्साह, प्रयोग और बल का र्हास होता हैं।।४॥

यथा भारेण नमते लघुनोन्नमते तुला। समातिष्ठति युक्तेन भोज्येनेयं तथा तनुः ॥५॥

जैसे अधिक भार से तुल्ला (पलढ़ा) मुकरती हैं, हलके भार से खठती हैं और उचित भार से समान रहती हैं उसी प्रकार (अधिक अल्प एवं युक्त) आहार से यह शरीर (क्रमशः भारी, क्षीण और ठीक होता हैं) ॥५॥

तस्मादभ्यवहर्तव्यं स्वशक्तिमनुपश्यता । नातिमात्रं न चात्यल्पं मेयं मानवशादपि ॥६॥

इस लिए अपनी शक्ति को देखते हुए भोजन करना चाहिए; मान के वशीभूत होकर भी न बहुत अधिक और न बहुत कम ही खाना (मापना, काढना) चाहिए ॥६॥

अत्याक्रान्तो हि कायाग्निर्गुरुणान्नेन शाम्यति । अवच्छन्न इवाल्पोऽग्निः सहसा महतेन्धसा ॥७॥

शरीर की अग्नि अन्न के भार से दबकर ऐसे शान्त हो जाती हैं जैसे थोड़ी सी आग इठात ही जलावन के बोझ से ढककर बुझ जाती हैं।।७।।

अत्यन्तमपि संहारो नाहारस्य प्रशस्यते । अनाहारो हि निर्वाति निरिन्धन इवानलः ॥८॥

भोजन बिल्कुल छोड़ देना भी प्रशंसनीय नहीं हैं; क्योंकि भोजन नहीं करने वाला मनुष्य इन्धन-रहित अग्नि के समान शान्त हो जाता हैं।।८।।

यस्मान्नास्ति विनाहारात्सर्वप्राणभृतां स्थिति:। तश्मा दुष्यति नाहारो विकल्पोऽत्र तु वार्यते ॥९॥ 

क्यों कि भोजन के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता, इसलिए भोजन में दोष नहीं हैं, किंतु भोजन-विशेष (भोजन का चुनाव) निषिद्ध हैं।।९॥

न ह्ये कविषयेऽन्यत्र सज्यन्ते प्राणिन्स्तथा । अविज्ञाते यथाहारे बोद्धव्यं तत्र कारणं ॥१०।।

प्राणी दूसरे किसी एक विषय में उतना आासक्त नहीं होते हैं, जितना कि अज्ञान (विशिष्ट ?) भोजन में, इसका कारण जानना चाहिए ।।१०॥

चिकित्सार्थं यथा धर्त्त व्रणस्याजपनं व्रणी।क्षुद्विधातार्थमाहारस्तद्वत्सेव्यो मुमक्षुणा ॥११॥

घायल आदमी जैसे घाव की चिकित्सा के लिए मलहम लगाता हैं, वैसे ही मुक्ति चाहने वाले को भूख मिटाने के लिए भोजन का सेवन करना चाहिए ।।११।।

भारस्याद्वहनार्थ च रथाक्षोऽभ्यज्यते यथा । भोजनं प्राणयात्रार्थ तद्वद्विद्वान्निषेवेते ॥१२॥

जैसे भार ढोने के लिए रथ के धुरे में चर्बी लगाई जाती हैं वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य जीवन-यात्रा के लिए भोजन का सेवन करता हैं ।।१२॥

समतिक्रमणार्थं च कान्तारस्य यथाध्वगौ । पुत्रमांसानि खादेतां दम्पती भृशदुःखितौ ॥१३॥

जिस प्रकार यात्री दम्पती मरुभूमि को पार करने के लिए अत्यन्त दुःखी होकर अपने पुत्र का मांस खायें, ॥१३॥

एवमभ्यवहर्तव्यं भोजनं प्रतिसंख्यया । न भूषार्थं न वपुषे न मदाय न द्दप्तये ॥१४॥

उसी प्रकार समझ-बूझ कर भोजन करना चाहिए; सौन्दर्य रूप मद या औद्धत्य के लिए नहीं खाना चाहिए ।।१४।।

धारणार्थ शरीरस्य भोजनं हि विधीयते । उपस्तम्भ: पिपतिषोदुर्बलस्येव वेश्मनः ॥१५॥

शरीर धारण करने के लिए ही भोजन विहित हैं, जैसे गिरते हुए दुर्बल घर की रक्षा के लिए उसमें उपस्तम्भ (खम्भा) लगाया जाता हैं ॥१५॥

प्लवं यत्नाद्यथा कश्चिद्वध्नीयाद्वारयेदपि । न तत्भ्नेहन यावत्तु महौधस्योत्तितीर्षया ॥१६॥

जैसे कोई मनुष्य नाव को, उसके स्नेह से नहीं किंतु बाढ़ पार करने की इच्छा से, यत्नपूर्वक बनाये और ढोये भी ॥१६॥

तथोपकरणै: कायं धारयन्ति परीक्षका: । न तत्स्नेहेन  यावत्तु दुःखौघस्य तितीर्षया ॥१७॥ 

वैसे ही दार्शनिक (योगाभ्यासी) लोग शरीर को, उसके स्नेह से नहीं किंतु दुःखरूप बाढ़ को पार करने की इच्छा से, (भोजन आदि आवश्यक) उपकरणों द्वारा धारण करते हैं ॥१७॥

शोचता पीड्यमानेन दीयते शत्रवे यथा । न भक्त्या नापि तर्षेण केवलं प्राणगुप्तये ॥१८॥

जैसे (शत्रु द्वारा) पीड़ित होकर कोई मनुष्य (द्रव्य आदि) जो कुछ शत्रु को देता हैं, वह भक्ति से नहीं, इच्छा से (या किसी वस्तु की तृष्णा से) नहीं, किंतु केवल प्राण-रक्षा के लिए ही शोकपूर्वक देता हैं, ॥१८॥

योगाचारस्तथाहारं शरीराय प्रयच्छति । केवलं क्षूद्विघातार्थ न रागेण न भक्तये। ॥१९॥॥

वैसे ही योगाभ्यासी मनुष्य शरीर को जो आहार देता हैं वह अनुराग या भक्ति से नहीं, किंतु केवल भूख मिटाने के लिए ही देता हैं। ॥१९॥

मनोधारणया चैव परिणाम्यात्मवानहः। विधूय निद्रां योगेन निशामप्यतिनामयेः। ॥२०।।

संयतात्म होकर दिवस को मनोनिग्रह में बिताओ और निद्रा को दूर करके रात्रि को भी योगाभ्यास में बिताओ। ॥२०॥

हृदि यत्संज्ञिनश्चैव निद्रा प्रादुर्भवेत्तव । गुणवत्संज्ञितां संज्ञां तदा मनसि मा कृथाः। ॥२१॥

संज्ञा (चेतना, होश) के रहते यदि तुम्हारे हृदय में निद्रा का प्रादुर्भाव हो तो उस संज्ञा को अपने मन में उत्तम संज्ञा मत समझो। ॥२१॥

धातुरारम्भधृत्योश्च स्थामविक्रमयोरपि । नित्यं मनसि कार्यस्ते बाध्यमानेन निद्रया ॥२२।।

नींद से पीड़ित होने पर आरम्भ (उद्योग) और धैर्य तथा शक्ति और पराक्रम के तत्वों का अपने मन में चिन्तन करो ॥२२॥

आम्नातव्याश्च विशदं ते धम्मा ये परिश्रुताः। परेभ्यश्चोपदेष्टव्याः संचिन्त्याः स्वयमेव च ॥२३।।

जिन धर्मों को तुमने सुना हैं उनका साफ साफ पाठ करो, दूसरों को उपदेश दो और स्वयं भी चिन्तन करो। ॥२३॥

प्रक्लेद्यभ्दिर्वदनं विलोक्याः सर्वतो दिशः। चार्या दृष्टिश्च तारासु जिजागरिषुणा सदा ॥२४॥

सदा जागरण की इच्छा करने वाले को जल से मुख भिगोना चाहिए, चारों ओर दृष्टि-पात करना चाहिए और ताराओं की ओर देखना चाहिए ॥२४।।

अन्तर्गतैरचपलैवंशस्थायिभिरिन्द्रियैः । अविक्षप्तेन मनसा चंक्रम्यस्वास्व वा निशि ॥२५॥

इन्द्रियों को भीतर की ओर (अन्तर्मुख), स्थिर और वश में करके शान्त चित्त से चंक्रमण (चहल कदमी) करो या बैठे रहो ।।२५॥

भये प्रीतौ च शोके च निद्रया नाभिभूयते ।तस्मान्निद्राभियोगेषु सेवितव्यमिदं त्रयं ॥२६॥

भय, प्रीति और शोक में मनुष्य निद्रा से पीड़ित नहीं होता है, इसलिए निद्रा का आक्रमण होते समय इन तीनों का सेवन करना चाहिए ॥२६॥

भयमागमनान्मृत्योः प्रीतिं धर्मपरिग्रहात् ।जन्मदुःखादपर्यंताच्छोकमागन्तुमर्हसि ॥२७॥

मृत्यु आ रही हैं इस प्रकार (मृत्यु से) भय, धर्म ग्रहण कर रहा हूँ इस प्रकार (धर्म से) प्रीति और जन्म का दुःख अनन्त हैं; इस प्रकार (जन्म के लिए) शोक करना चाहिए ॥२७৷।

एवमादिः क्रमः सौम्य कार्यो जागरणं प्रति । वन्ध्यं हि शयनादायुः कः प्राज्ञः कर्तुमर्हति ॥२८।।

जागरण के लिए, हे सौम्य, इस और ऐसे ही क्रम का सेवन करना चाहिए; क्योंकि कौन ज्ञानवान् मनुष्य सोकर पनी आयु को निष्फल करेगा ? ॥२८।।

दोषव्यालानतिक्रम्य व्यालान गृहगतानिव । क्षमं प्राज्ञस्य न स्वप्तुं निस्तितीर्षोर्महद्भयं ॥२९॥

जैसे घर में रहने वाले साँपों की अवहेलना करके समझदार आदमी के लिए सोना उचित नहीं हैं, वैसे ही दोषरूपी सर्पों की उपेक्षा करके महाभय को पार करने की इच्छा करने वाले ज्ञानी के लिए सोना उचित नहीं हैं। ॥२९॥

प्रदीप्ते जीवलोके हि मृत्युव्याधिजराग्रिभिः । क: शयीत निरुद्वेगः प्रदीप्त इव वेश्मनि। ॥३०।।

जैसे जलते हुए घर में कोई भी आदमी निश्चिंत होकर नहीं सो सकता, वैसे ही मृत्यु, व्याधि और जरारूपी अग्नियों से प्रज्वलित जीव-लोक में कौन निर्भय होकर सोयेगा ? ॥३०॥

तस्मात्तम इति ज्ञात्वा निद्रां नावेष्टुमर्हसि । अप्रशान्तेषु दोषषु सशस्त्रेष्विव शत्रुषु ॥३१॥

इसलिए जब तक शस्त्र-युक्त शत्रुं के समान तुम्हारे दोष शान्त नहीं हो जाते तब तक निद्रा को मानसिक अन्धकार समझकर अपने को उसके वशीभूत न होने दो। ॥३१॥

पूर्व यामं त्रियामायाः प्रयोगेणातिनाम्य तु । सेव्या शय्या शरीरस्य विश्रामार्थ स्वतन्त्रिणा ॥३२॥

तीन प्रहर वाली रात्रि के प्रथम प्रहर को योगाभ्यास में बिताकर, (दूसरे प्रहर में) शरीर के विश्राम के लिए सावधान होकर शस्या का सेवन करो ।।३२।।

दक्षिणेन तु पार्श्वेन स्थितयालोकसंज्ञया । प्रबोधं हृदये कृत्वा शयीथा: शान्तमानसः॥३३॥

दाई करवट से, आलोक (प्रकाश) की भावना करते हुए, हृदय में ज्ञान (होश) रखकर, शान्तचित्त होकर सोओ ।।३३॥

यामे तृतीये चोत्थाय चरन्नासीन एव वा । भूयो योगं मनःशुद्धौ कुर्वीथा नियतेन्द्रियः ॥३४॥

और तीसरे पहर में उठकर, टहलते हुए या बैठे हुए ही, संयतेन्द्रिय होकर मानसिक शुद्धि में पुनः योगारूढ़ हो जाओ ॥३४।।

अथासनगतस्थानप्रेक्षतव्याहृतादिषु । सं?जानन् क्रियाः सर्वाः स्मृतिमाधातुमर्हसि ॥३५॥

बैठते, चलते, खड़ा होते, देखते, बोलते और ऐसे ही दूसरे कार्य करते समय, अपने सभी कार्यो को अच्छी तरह जानते हुए (अनुभव करते हुए), अपनी स्मृति (जागरूकता) को स्थिर रखो ॥३५॥

द्वाराध्यक्ष इव द्वारि यस्य प्रणिहिता स्मृतिः । धर्षयन्ति न तं दोषाः पुरं गुप्तमिवारय: ॥३६॥

द्वार पर नियुक्त द्वाराध्यक्ष के समान जिसकी स्मृति स्थिर हैं उसके ऊपर दोषों का आक्रमण नहीं होता हैं जैसे कि रक्षित नगर पर शत्रुओं का आक्रमण नहीं होता हैं। ॥३६॥

न तस्योत्पद्यते क्लेशो यस्य कायगता स्मृतिः । चित्तं सर्वास्ववस्थासु बालं धात्रीव रक्षति ॥३७॥

उस मनुष्य को कोई क्लेश (दोष) नहीं हो सकता जिसकी काय-गत (शरीर में लगी हुई) स्मृति सभी अवस्थाओं में उसके चित्त की रक्षा करती हैं, जैसे धाई बालक की रक्षा करती हैं। ॥३७॥

शरव्यः स तु दोषाणां यो हीन: स्मृतिवर्मणा। रणस्थः प्रतिशत्रूणो विहीन इव वर्मणा ॥३८॥

दोषों का लक्ष्य वही आदमी होता हैं जो स्मृतिरूपी कवच से हीन हैं, जैसे प्रतिपक्षी शत्रुओं का लक्ष्य वही योद्धा होता हैं जो कवच से रहित हैं ॥३८॥

अनाथं तन्मनो ज्ञेयं यत्स्मृतिर्नाभिरक्षति । निर्णेता दृष्टरहितो विषमेषु चरन्निव ॥३९॥

स्मृतिद्वारा अरक्षित चित्त को वैसे ही अनाथ समझना चाहिए, जैसे पथ-प्रदर्शक के बिना विषम स्थलों पर चलता हुआ दृष्टि-रहित मनुष्य असहाय होता हैं ॥३९॥

अनर्थेषु प्रसक्ताश्च स्वार्थेभ्यश्च पराङ्मुखाः। यद्भये सति नोद्विग्न: स्मृतिनाशोऽत्र कारणं ॥४०॥

लोग अनर्थों में आसक्त होते हैं, स्वार्थों (अपने उत्तम लक्ष्य) से विमुख रहते हैं और भय के रहते उद्विग्न (भयभीत) नहीं होते हैं, इसका कारण हैं स्मृति-विनाश ॥४०॥

स्वभूमिषु गुणाः सर्वे ये च शीलादयः स्थिताः । विकीर्ण इव गा गोपः स्मृतिस्ताननुगच्छति ॥४१॥

स्मृति अपने अपने क्षेत्र में रहने वाले शील आदि सभी सद्गुणों का अनुसरण करती हैं, जैसे कि गोप बिखरी हुई गौओं का पीछा करता हैं। ॥४१॥

प्रनष्टममृतं तस्य यस्य विप्रसृता स्मृतिः । हस्तस्थममृतं तस्य यस्य कायगता स्मृतिः ॥४२॥

जिसकी स्मृति बहकी हुई हैं उसका अमृत (श्रेय) नष्ट हो गया। जिसकी स्मृति उसके शरीर (काया) में लगी हुई है उसके हाथ में अमृत हैं। ॥४२॥

आयों न्यायः कुतस्तस्य स्मृतिर्यस्थ न विद्यते । यस्यार्यों नास्ति च न्यायः प्रनष्टस्तस्य सत्पथः ॥४३॥

जिसको स्मृति नहीं हैं उनको आर्यं न्याय (सत्य) कहाँ से प्राप्त होगा? और जिसको आर्य न्याय (सत्य) प्राप्त नहीं हैं उसका सन्मार्ग नष्ट हो गया ॥४३॥

प्रनष्टो यस्य सन्मार्गो नष्टं तस्यामृतं पदं । प्रनष्टममृतं यस्य स दुःखान्न विमुच्यते ॥४४॥

जिसका सन्मार्ग नष्ट हो गया उसका अमृत पद (निब्बाण पद) नष्ट हो गया। जिसका अमृत पद नष्ट हो गया वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता ॥४४॥

तस्माच्चरन् चरोऽम्मीति स्थितोऽस्मीति च धिष्ठित: ।एवमादिषु कालेषु स्मृतिमाधातुमर्हसि ॥४५॥

इसलिए चलता हुआ 'चल रहा हूँ' खड़ा हुआ 'खड़ा हूं, ऐसे ही दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाये रहो ॥४५॥

योगानुनोमं विजनं विशब्दं शय्यासनं सौम्य तथा भजस्व । कायस्य कृत्वा हि विवेकमादौ सुखोऽधिगन्तुं मनसो विवेक: ॥४६॥

हे सौम्य, योग के अनुकूल निर्जन और निःशब्द शय्या और आसन का सेवन करो । क्योंकि पहले शरीर को एकान्त में कर लेने पर मानसिक एकान्त (एकाग्रता) आसानी से प्राप्त हो सकता हैं ।I४६॥

अलब्धचेत: प्रशमः सरागो यो न प्रचारं भजते विविक्तं ।स क्षण्यते ह्यप्रतिलब्धमार्गश्चरन्निवोर्व्यो बहुकण्टकार्या ॥४७॥

जो राग से मुक्त हैं, जो एकान्त में नहीं रहता हैं, और जिसने मानसिक शान्ति नहीं पाई हैं; वह मार्ग नहीं पा सकने के कारण कण्टकाकीर्ण भूमि पर चलते हुए के समान कष्ट पाता हैं ॥४७॥ 

अदृष्टतत्वेन परीक्षकेण स्थितेन चित्रे विषय प्रचारे । चित्तं निषेद्धुं न सुखेन शक्यं कृष्टादको गौरिव सस्यमध्यात् ॥४८॥

जिस परीक्षक (जिज्ञासु, योगी, दार्शनिक) ने तत्त्व का दर्शन नहीं किया हैं और जो विविध विषयों के बीच पड़ा हुआ वह अपने चित्त को आसानी से नहीं रोक सकता हैं, जैसे खेती खाने (चरने) वाले सांड को फसल के बीच से आसानी से नहीं हटाया जा सकता ॥४८॥

अनीर्यमाणस्तु यथानिलेन प्रशान्तिमागच्छति चित्रभानु: ।अल्पेन यत्नेन तथा विविक्तेष्वघट्टितं शान्तिमुपैति चेतः ॥४९॥

जिस प्रकार हवा से नहीं प्रेरित होती हुई अग्नि शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार एकान्त में प्रकम्पनरहित चित्त अल्प यत्न से शान्ति को प्राप्त होता हैं ॥४९॥

क्वचिद्भुक्त्वा यत्तद्वसनमपि यत्त्परिहितो वसन्नात्मारामः क्वचन विजने योऽभिरमते । कृतार्थ: स ज्ञेयः शमसुखरसज्ञः कृतमतिः परेषां संसर्ग परिहरति यः कण्टकभिव ॥५०॥

जहाँ कहीं भी जो-सो खाकर, जैसा-तैसा कपडा पहनकर, और जहाँ-कहीं भी रहकर जो आत्म-तुष्ट रहता हैं, निर्जन स्थान में रमण करता हैं और दूसरों के संसर्ग से ऐसे बचता हैं जैसे काँटे से, वह बुद्धिमान शान्ति-सुख के रस को जानता हैं और उसे ही कृतार्थ समझना चाहिए ॥५०॥

यदि द्वन्द्वारामे जगति विषयव्यग्रहृदये विविक्ते निर्द्वन्द्वो विहरति कृती शान्तहृदय: । ततः पीत्वा प्रज्ञारसममृतवत्तृप्तह्दयो विविक्तः संसक्तं विषयकृपणं शोचति जगत् ॥५१॥

(सुख-दुःख आदि) द्वन्द्वों में आनन्द पाने वाले एवं विषयों से व्यग्र हृदय वाले जगत् में यदि द्वन्द्व-रहित और शान्तहृदय होकर कोई पवित्रात्म एकान्त में विहार करता हैं, तो वह अमृत के समान प्रज्ञा-रस का पान कर तृप्तहृदय और अनासक्त हो जाता हैं तथा आसक्ति में पड़े हुए एवं विषयों के लिए आतुर जगत् के लिए शोक करता हैं॥५१॥

वस्रव्शून्यागारे यदि सततमेकोऽभिरमते यदि क्लेशोत्पादैः सह न रमते शत्रुभिरिव। चरन्नात्मारामो यदि च पिबति प्रीतिसलिलं ततो भुङ्क्ते श्रेष्ठं त्रिदशपतिराज्यादपि सुखं ॥५२॥

यदि वह सूने घर में सदा अकेला ही रमण करता हैं, यदि क्लेशों (दोषों) के कारणों से ऐसे दूर रहता हैं जैसे शत्रुओं से और यदि आत्म-तुष्ट रहता हुआ प्रीति-जल का पान करता हैं तो वह देवेन्द्र के राज्य से भी उत्तम सुख का भोग करता हैं ॥५२॥

सौन्दरनन्दे महाकाव्य आदिप्रस्थानो नाम चतुर्दश: सर्गः

सौन्दरनन्द महाकाव्य में 'आदि-प्रस्थान "नामक चतुर्दश सर्ग समाप्त ।


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