Wednesday, January 27, 2021

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, भाग १

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, षोडश सर्ग:

अबोधतो ह्यप्रतिवेधतश्च तत्त्वात्मकस्यास्य चतुष्टयस्य। भवाद्भवं याति न शान्तिमेति संसारदोलामधिरुह्य लोकः। ॥६॥

इस तत्वात्मक चार (आर्य-सत्य-समूह) को न समझ बूझ सकने के कारण मनुष्य संसाररूपी दोला पर चढ़कर एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है और शान्ति प्राप्त नहीं करता है। ॥६॥

तस्माज्जरादेर्व्यसनस्य मूलं समासतो दुःखमवैहि जन्म।सर्वौषधीनामिव भूर्भवाय सर्वापदां क्षेत्रमिदं हि जन्म। ॥७॥

इसलिए संक्षेप में जानो कि जरा आदि विपत्तियों का मूल जन्मरूपी दुःख है, जैसे सभी औषधियों की उत्पत्ति भूमि से होती है वैसे ही सभी विपत्तियों का (उत्पत्ति-) क्षेत्र जन्म है। ॥७॥

यज्जन्म रूपस्य हि सेन्द्रियस्य दुःखस्य तन्ने कविधस्य जन्म। यः संभवश्चास्य समुच्छ्रयस्य मृत्योश्च रोगस्य च संभवः सः। ॥८॥

इन्द्रियों सहित रूप की जो उत्पत्ति है वही उत्पत्ति (कारण) है अनेक प्रकार के दुःख का । इस शरीर का जो कारण है वही कारण है मृत्यु और रोग का । ॥८॥

सद्वाप्यसद्वा विषमिश्रमन्नं यथा विनाशाय न धारणाय ।लोके तथा तिर्यगुपर्यधो वा दुःखायसर्वंन सुखाय जन्म । ।।९॥

जैसे विष मिला हुआ अन्न, अच्छा हो या बुरा, विनाशक ही होता है न कि रक्षक या पोषक, वैसे ही संसार में पशु-पक्षियों की ऊपर या नीचे की योनि में कहीं भी जन्म लेना दुःख का ही कारण होता है, सुख का नहीं । ।।९॥ 

जरादयो नैकविधा प्रजानां सत्यां प्रवृत्तौ प्रभवन्त्यनर्थाः।प्रवात्सु घोरेष्वपि मारुतेषु न ह्यप्रसूतास्तरवश्चलन्ति । ॥१०॥

सांसारिक प्रवृत्ति के रहते प्राणियों को बुढापा आदि अनेक प्रकार की विपत्तियां होती हैं । (किंतु प्रवृत्ति अर्थात् जन्म के अभाव में उन्हें ये विपत्तियां नहीं सहनी पड़ती हैं), जैसे भीषण आंधी के चलते रहने पर भी अनुत्पन्न वृक्ष चलायमान नहीं होते । ॥१०॥

आकाशयोनिः पवनो यथा हि यथा शमीगर्भशयो हुताश ।आपो यथान्तर्वसुधाश्याश्च दुःख तथा चित्तशरीरयोनि। ॥ ११॥

जैसे आकाश में हवा की उत्पत्ति होती है, शमी नामक लकड़ी के भीतर अग्नि रहती है‌ और पृथ्वी के भीतर पानी रहता है वैसे ही चित्त और शरीर में दुःख की उत्पत्ति होती है । ॥११॥

अपां द्रवत्वं कठिनत्वमुर्व्या वायोश्चलत्व ध्रूषमौष्ण्यमग्नेः । यथा स्वभावो हि तथा स्वभावो दुःखं शरीरस्य च चेतसञ्च ॥१२॥

पानी का द्रवत्व, पृथ्वी की कठोरता (ठोस होने का गुण); हवा की अस्थिरता और अग्नि की उष्णता स्वभाव है, वैसे ही चित्त और शरीर का स्वभाव दुःख है। ॥१२॥

काये सति व्याधिजरादि दुःखं क्षुत्तर्षवर्षोष्णहिमादि चैव ।रूपाश्रिते चेतसि सानुबन्धे शोकारतिक्रोधभयादि दुःखं । ॥१३॥

शरीर के रहते रोग, बुढ़ापा आदि तथा भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, वर्षा आदि दुःख होते ही हैं वैसे ही रूप में आश्रित तथा अनुबन्ध-युक्त चित्त में शोक, अरति, क्रोध, भय आदि दु:ख होते ही हैं। ॥१३॥

प्रत्यक्षमालोक्य च जन्मदुःखं दुःख तथातीतमपीति विद्धि । यथा च तद्दुःखमिद च दुःख दुःखं तथानागतमप्यवेहि ॥१४॥

जन्म के दुःख को प्रत्यक्ष देखकर बीते हुए दुख को भी वैसा ही समझो और जैसा कि वह (बीता हुआ) दुःख था और यह (वर्तमान) दुःख है वैसा ही भावी दु:ख को भी समझो । ॥१४॥ 

बीजस्वभावो हि यथेह दृष्टो भूतोऽपि भव्योऽsपि तथानुमेय । प्रत्यक्षतश्च ज्वलनो यथोष्णो भूतोऽपि भव्योऽपि तथोष्ण एव ।॥१५।।

बीज का जैसा स्वभाव यहाँ देखा जाता है वैसा ही (अतीत में) था और वैसा ही (भविष्य में) रहेगा भी, यह अनुमान करना चाहिए और अग्नि प्रत्यक्ष में जैसी गर्म है वैसी ही गर्म थी और रहेगी भी।॥१५॥

तन्नामरूपस्य गुणानुरूपं यत्रैव निवृत्तिरुदारवृत्त । तत्रैव दुःखं न हि तद्विमुक्तं दु.खं भविष्यत्यभवद्भवेद्वा ॥१६॥

हे उदार आचरण वाले, गुणो के अनुसार जहाँ नाम-रूप की निष्पत्ति होती है वहीं दुःख है, इसको छोड़कर और कहीं भी दुःख न है, न था और न होगा। ॥१६॥

प्रकृत्तिदुःखस्य च तस्य लोके तृष्णादयो दोषगणा निमित्तं । नैवेश्वरो न प्रकृतिने कालो नापि स्वभावो न विधिर्यदृच्छा ॥१७॥

संसार में इस प्रवृत्ति (जन्म) रूपी दुःख का कारण तृष्णा आदि दोषों का समूह है; ईश्वर, प्रकृति, काल, स्वभाव, विधि या संयोग इसका कारण नहीं है। ।।१७॥

ज्ञातव्यमेतेन च कारणेन लोकस्य दोषेभ्य इति प्रवृत्ति ।यस्मान्त्रियन्ते सरजस्तमस्का न जायते वीतरजस्तमस्कः । ॥१८॥

अतः जानना चाहिए कि दोषों (तृष्णा आदि) से ही संसार की उत्पत्ति होती है; जो रज (मन का मैल) और तम (चित्त का अन्धकार) से युक्त हैं वे (फिर से जन्म लेने के लिए) मरते हैं, किन्तु जिसका रज और तम नष्ट हो गया है वह फिर जन्म नहीं लेता है । ॥१८॥

इच्छाविशेषे सति तत्र तत्र यानासनादेर्भवति प्रयोगः।यश्मादतस्तर्षवशात्तथैव जन्म प्रजानामिति वेदितव्यं ॥१९॥

उस उस विषय को इच्छा होने पर ही चलने और बैठने आदि की क्रिया होती है, इसलिए जानना चाहिए कि तृष्णा के वशीभूत होने पर ही प्राणियों का जन्म होता है । ॥१९॥

सत्वान्यभिष्वङ्गवशानि दृष्ट्वा स्वजातिषु प्रीतिपराण्यतिव । अभ्यासयोगादुपपादितानि तैरेव दोषैरति तानि विद्धि ।।२०॥

जीव आसक्तियों के अधीन और अपने अपने जन्म (जीवन, योनि) से प्रीति करते हुए देखे जाते हैं ; (आसक्तियों और प्रीति के) अभ्यास के कारण ही वे उन दोषो के साथ फिर जन्म लेते हैं, ऐसा जानना चाहिए । ।।२०॥

क्रोधप्रहर्षादिभिराश्रयाणामुत्पद्यते चेह यथा विशेषः ।तथैव जन्मस्वपि नैकरूपो निर्वर्तते क्लेशकृतो विशेषः। ॥२१॥

जैसे इस संसार में क्रोध और प्रसन्नता आदि के द्वारा प्राणियों में विशेषता होती है (अर्थात् कोई क्रोधी, कोई प्रसन्नचित्त होता है) वैसे ही भिन्न भिन्न जन्मों में अपने अपने दोषों के कारण उनमें अनेक प्रकार की विशेषता होती है । ॥२१॥

दोषाधिके जन्मनि तीव्रदोष उत्पद्यते रागिणि तीव्ररागः ।मोहाधिके मोहबलाधिकश्च तदल्पदोषे च तदल्पदोषः ।।२२॥

जिसमें दोषों की अधिकता होती है उसका जन्म होने पर तीव्र दोष उत्पन्न होता है, जिसमें (अत्यन्त) राग होता है उसका जन्म होने पर तीव्र राग उत्पन्न होता है, जिसमें मोहाधिक्य होता है उसका जन्म होने पर मोह-बल की अधिकता होती है और जिसमें अल्प दोष होता है उसका जन्म होने पर अल्प दोष होता है । ॥२२॥

फलं हि यादृक् समवैति साक्षात्तदागमाद्वीजमवैत्यतीतं ।अवेत्य बीजप्रकृति च साक्षादनागतं तत्फलमभ्युपैति ॥२३॥

मनुष्य फल को साक्षात् जैसा देखता है, उसी के अनुसार उसके ही अतीत (पूर्व) बीज को (वैसा ही) सममझ लेता है और बीज के स्वभाव को साक्षात देखकर उसके अनागत (भावी) फल को भी समझ लेता है। ॥२३॥

दोषक्षयो जातिषु यासु यस्य वैराग्यतस्तासु न जायते सः । दोषाशयस्तिष्ठति यस्य यत्र तस्योपपत्तिर्विवशस्य तत्र ॥२४॥

जिन (प्रकारों के) जन्मों में जिसके दोषों का नाश हो गया है उनमें वैराग्य होने के कारण वह फिर जन्म नहीं लेता; किन्तु जिन (प्रकारों के जन्मों) में जिसका दोषाशय रह जाता है उनमें वह विवश होकर जन्म लेता है। ॥२४॥

तज्जन्मनो नैकविधस्य सौम्य तृष्णादयो हेतव इत्यवेत्य ।तांश्छ्रन्धि दुखाद्यदि निर्मुमुक्षा कार्यक्षयः कारणसंक्षयाद्धि। ॥२५।।

इसलिए, हे सौम्य, अनेक प्रकार के जन्मों का कारण हैं तृष्णा आदि दोष; यदि दुःख से मुक्त होने की इच्छा है तो उन दोषों को काटो, क्योंकि कारण के नाश से कार्य का नाश होता है। ॥२५॥

दुःखक्षयो हेतुपरिक्षयाच्च शान्तं शिवं साक्षिकुरुष्व धर्मं।तृष्णाविरागं लयनं निरोधं सनातनं त्राणमहार्यमार्यं। ॥२६॥

कारण का नाश होने से दुःख का नाश होता है। शान्त एवं मङ्गल-मय धर्म का साक्षात्कार करो, जो तृष्णा-विनाशक, आश्रय रूप, निरोध-रूप, सनातन, रक्षक, अविनाशी और पवित्र है। ॥२६॥

यस्मिन्न जातिर्न जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोगः ।नेच्छाविपन्न प्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् ॥२७॥

(उस पद की खोज करो) जिसके प्राप्त होने पर न जन्म होता है, न बुड़ापा, न मृत्यु, न व्याधि, न अप्रिय-संयोग, न इच्छा-विघात (या इच्छा रूपी विपत्ति) और न प्रिय वियोग; वह कल्याण-कारी पद नैष्ठिक और अक्षय है। ॥२७॥

दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं ।दिशं न कांचिद्विदिशं न कोचित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिं ॥२८॥

जिस प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ दीप न पृध्वी पर रहता है, न आकाश में जाता है, न किसी दिशा या विदिशा में; किंतु तेल समाप्त हो जाने पर केवल शान्ति को प्राप्त होता है; ॥२८॥

एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं।दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिं। ॥२९॥

उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ धन्य (पुण्यात्म, पवित्र साधु) पुरुष न पुथ्वी पर रहता है, न आकाश में जाता है, और न किसी दिशा या विदिशा में ही; किंतु क्लेशों (पापों, दोषों) का नाश होने पर केवल शान्ति को प्राप्त होता है। ॥२९॥

अश्याभ्युपायोऽधिगमाय मार्ग: प्रज्ञात्रिकल्प: प्रशमद्विकल्पः। स भावनीयो विधिवद्बुधेन शीले शुचौ त्रिप्रमुखे स्थितेन। ॥३०॥

इसकी प्राप्ति का उपाय है वह मार्ग, जो त्रिविध प्रज्ञा एवं द्विविध शान्ति से युक्त है; पवित्र त्रिविध शील में स्थित होकर बुदिमान् मनुष्य को उस (मार्ग) की भावना करनी चाहिए। ॥३०॥

वाक्कर्म सम्यक् सहकायकर्म यथावदाजीवनयश्च शुद्धः।इदं त्रयं वृत्तविधौ प्रवृत्तं शीलाश्रयं कर्मपरिग्रहाय। ॥३१॥

वाणी और शरीर के सम्यक् कर्म और शुद्ध आजीविका - ये तीनों आचरण से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय शील है, इनके द्वारा कर्मों का निग्रह होता है। ॥३१॥

सत्येषु दुःखदिषु दृष्टिरार्या सम्यग्वितर्कश्व पराक्रमश्च। इदं त्रयं ज्ञानविधौ प्रवृत्ं प्रज्ञाश्रयं क्लेशपरिक्षयाय। ॥३२॥

दुःख आदि सत्यों के विषय में सम्यक दृष्टि, सम्यक विचार और सम्यक् प्रयत्न ये तीन ज्ञान से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय प्रज्ञा है, इनके द्वारा क्लेशों का नाश होता है। ॥३२॥

न्यायेन सत्याधिगमाय युक्ता सम्यक् स्मृति: सम्यगथो समाधिः। इदं द्वयं योगविधौ प्रवृत्तं शमाश्रयं चित्तपरिग्रहाय। ॥३३॥

सम्यक् स्मृति, जो सत्य की प्राप्ति में न्यायपूर्वक लगी हुई हो तथा सम्यक समाधि - ये दो योग से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय शम (शान्ति) है, इनके द्वारा चित्त का निग्रह होता है। ॥३३॥

क्लेशांकुरान्न प्रतनोति शीलं बीजांकुरान काल इवातिषृत्तः। शुचौ हि शीले पुरुषस्य दोषा मनः सलज्जा इव धर्षयन्ति। ॥३४।।

शील के रहते क्लेशों (दोषों) के अंकुर नहीं पनप सकते, जैसे अकाल में बीजों से अंकुर नहीं उग सकते। पवित्र शील में रहने वाले मनुष्य के मन पर आक्रमण करने में दोष भी मानो लज्जित होते हैं। ॥३४॥

क्लेशांस्तु विष्कम्भयते समाधिर्वेगानिवाद्रिर्महतो नदीनां।स्थिते समाधौ हि न धर्षयन्ति दोषा भुजंगा इव मन्त्रबद्धाः। ॥३५॥

समाधि क्लेशों को रोकती है, जैसे पर्वत नदियों के महावेग में रुकावट डालता है। समाधिस्थ होने पर मन्त्र-बद्ध सर्पों के समान दोष आक्रमण नहीं कर सकते। ॥३५॥

प्रज्ञा त्वशेषेण निहन्ति दोषांस्तीरद्रुमान्प्रावृषि निम्नगेव।दग्धा यया न प्रभवन्ति दोषा वज्राग्निनेवानुसृतेन वृक्षा: ॥३६॥

प्रज्ञा दोषों को नि:शेष मार डालती है, जैसे वर्षाकाल में नदी अपने तटवर्ती वृक्षों को उखाड़ फेंकती है। प्रज्ञा से दग्ध होकर दोष उत्पन्न नहीं होते, जैसे फैलती हुई वज्राग्नि से वृक्ष जलकर नहीं पनपते। ॥३६॥

त्रिस्कन्धमेतं प्रविगाह्य मार्गं प्रस्पष्टमष्टाङ्गमहार्यमार्य।दुःखस्य हेतून्प्रजहाति दोषान्प्राप्नोति चात्यन्तशिवं पदं तत् । ॥३७॥

(शील-समाधि-प्रज्ञा रूपी) तीन स्कन्धों वाले इस स्पष्ट आर्य अष्टाङ्गिक अविनाशी मार्ग पर आारूढ होकर मनुष्य दुःख हेतुरूप दोषों को छोड़ता है और उस अत्यन्त मङ्गलमय (निर्वाण-) के पद को प्राप्त करता है। ॥३७॥

अस्योपचारे धृतिरार्जवं च ह्रीरप्रमादः प्रविविक्तता च। अल्पेच्छता तुष्टिरसंगता च लोकप्रवृत्तावरतिः क्षमा च। ॥३८॥

इस (दुःख) के उपचार में धैर्य, सरलता, लज्जा, अप्रमाद (सावधानी), एकान्त, अल्पेच्छता, संतोष, आसक्ति के अभाव, सांसारिक प्रवृत्ति में अरुचि और क्षमा की आवश्यकता होती है। ॥३८॥

याथात्म्यतो विन्दति यो हि दुःखं तस्योद्भवं तस्य च यो निरोधं। आर्येण मार्गेण स शान्तिमेति कल्याणमित्रैः सह वर्तमान:। ॥३९॥

जो मनुष्य दुःख, उसकी उत्पत्ति और उसके निरोध को ठीक-ठीक जानता है, वह कल्याण-कारी मित्रों के साथ रहता हुआ आर्य मार्ग से चलकर शान्ति प्राप्त करता है। ॥३९॥

यो व्याधितो व्याधिमवैति सम्यग् व्याधेर्निदानं च तदौषधं च। आरोग्यमाप्नोति हि सोऽचिरेण मित्रैरभिज्ञैरुपचर्यमाणः। ॥४०॥

जो रोगी रोग, रोग-निदान और रोग की औषधि को ठीक-ठीक जानता है वह निपुण मित्रों की चिकित्सा में रहकर शीघ्र आरोग्य प्राप्त करता है। ॥४०॥

तद्व्याधिसंज्ञां कुरु दुःखसत्ये दोषेष्वपि व्याधिनिदानसंज्ञां। आरोग्यसंज्ञां च निरोधसत्ये भैषज्यसंज्ञामपि मार्गसत्ये। ॥४१।।

इसलिए दुःख-सत्य को रोग, दोषों को रोग-निदान, निरोध-सत्य को आरोग्य, तथा मार्ग-सत्य को औषध समझो। ॥४१॥

तस्मात्प्रवृत्तिं परिगच्छ दुःखं प्रवर्तकानप्यवगच्छ दोषान् ।निवृत्तिमागच्छ च तन्निरोधं निवर्तकं चाप्यवगच्छ मार्ग। ॥४२॥

इसलिए दुःख को प्रवृति, दोषों को प्रवर्तक (प्रवृत्ति के कारण), निरोध को निवृत्ति और मार्ग को निवर्तक (निवृत्ति का उपाय) समझो। ॥४२॥

शिरस्यथो वासग्नि संप्रदीप्ते सत्यावबोधाय मतिर्विचार्या ।दग्धं जगत्सत्यनयं ह्यदृष्ट्वा प्रदह्यते संप्रति धक्ष्यते च। ॥४३॥

शिर और वस्त्र के जलते रहने पर भी सत्य के समझने में अ्पनी बुद्धि को लगाओ; क्योंकि सत्य को नहीं देखने के कारण यह संसार जला है, संप्रति जल रहा है और जलेगा। ॥४३॥

यदैव य: पश्यति नामरूपं क्षयीति तद्दर्शनमस्य सम्यक् ।सम्यक्च निर्वेदमुपैति पश्यन्नन्दीक्षयाच्च क्षयमेति राग: ॥४४॥

जब मनुष्य नामरूप (पंच-स्कन्ध, corporeality) को नाशवान देखता है तब वह ठीक-ठीक देखता है; और ठीक-ठीक देखता हुआ वह सम्यक निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त होता है और नन्दी (तृष्णा) का नाश होने से उसका राग नष्ट हो जाता है। ।।४४॥

तयोश्च नम्दीरजसोः क्षयेण सम्यग्विमुक्त' प्रवदामि चेतः ।सम्यग्विमुक्तिर्मनसश्च ताभ्यां न चास्य भूयः करणीयमस्ति। ॥४५॥

नन्दी (तृष्णा) और राग का नाश होने से, मैं कहता हूँ, उसके चित्त की सम्यक मुक्ति होती है और इन दोनों से चित्त की सम्यक मुक्ति होने पर उसके लिए और कुछ करने को नहीं रह जाता है। ॥४५॥

यथास्वभावेन हि नामरूपं तध्देतुमेवास्तगमं च तस्य ।विजानतः पश्यत एव चाहं ब्रवीमि सम्यक्क्षयमास्रवाणां ॥४६॥

जो मनुष नामरूप के वास्तविक स्वभाव, उसके कारण और उसके नाश होने को देखता और जानता है, मैं कहता हूँ , उसके आस्रव (चित्त-मल) अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं । ।।४६।।

तस्मात्परं सौम्य विधाय वीरयें शीघ्रं घटस्वास्त्र वसंक्षयाय । दुःखाननित्यांश्च निरात्मकांश्च धातून्विशेषेण परीक्षमाणः । ।।४७।।

इसलिए, हे सौम्य, खूब उद्योग करके आस्रवों को नष्ट करने की चेष्टा करो और दुःखरूप अनित्य तथा अनात्म धातुओं की विशेष रूप से परीक्षा करो। ॥४७॥

धातून्हि षड् भूसलिलानलादीन्सामान्यतः स्वेन च लक्षणेन । अवैति यो नान्यमवैति तेभ्यः सोऽत्यन्तिकं मोक्षमवैति तेभ्यः। ॥४८॥

जो मनुष्य पृथ्वी, जल, अग्नि आदि छः धातुओं को सामान्य रूप से और विशिष्ट रूप से समझता है और जो उनको छोड़कर और कुछ नहीं है ऐसा समझता है, वह उनसे होने वाली आत्यन्तिक मुक्ति को समझता है। ॥४८॥

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