Sunday, February 7, 2021

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, भाग, २

क्लेशप्रहाणाय च निश्चितेन कालोऽभ्युपायश्च परीक्षितव्यः । योगोऽप्यकाले ह्यनुपायतश्च भवत्यनर्थाय न तद्गुणाय ॥४९॥

जिसने क्लेशों (राग-द्वेष आदि) का नाश करने के लिए निश्चय किया है उसको काल और उपाय की परीक्षा करनी चाहिए । असमय में और अनुचित उपाय से यदि योगाभ्यास किया जाये तो उससे भी अनर्थ ही होता है, लाभ नहीं होता है। ॥४९॥

अजातवत्सां यदि गां दुहीत नैवाप्नु यात्क्षीरमकालदोही ।कालेऽपि वा स्यान्न पयो लभेत मोहेन शृङ्गाद्यदि गां दुहीत ॥५०॥

जिस गाय को बछड़ा नहीं हुआ है उसको यदि दूहा जाय तो असमय में दूहनेवाला मनुष्य दूध नहीं पायेगा; या यदि समय पर ही मनुष्य मूढ़तावश गाय के सींग को दूहे तो भी वह दूध नहीं पायेगा ।।५०॥

आर्द्राच्च काष्टाज्जवलनाभिकामो नैव प्रयत्नादपि वह्निमृच्छेत् । काष्ठाच शुष्कादपि पातनेन नैवाग्निमाप्नोत्यनुपायपूर्व ॥५१॥

अग्नि चाहने वाला मनुष्य गीले काठ से प्रयत्न करके भी अग्नि नहीं पायेगा और सुखे काठ को यदि (केवल नीचे) गिरा दे तो (इस) अनुचित उपाय के द्वारा अग्नि नहीं पा सकता है । ॥५१॥

तद्द शेकालौ विधिवत्परीक्ष्य योगस्य मात्रामपि चाभ्युपायं । बलाबले चात्मनि संप्रधार्यं कार्यः प्रयत्नोन तु तद्विरुद्धः ॥५२॥

इसलिए देश और काल तथा योग की मात्रा और उपाय की परीक्षा करके, अपने बलाबल (सामर्थ्य) का निश्चय करके प्रयत्न करना चाहिए, उनके विरुद्ध प्रयत्न नहीं करना चाहिए । ।।५२॥

प्रग्राहकं यत्तु निर्मित्तमुक्तमुद्धन्यमाने हृदि तन्न सेव्यं । एवं हि चित्तं प्रशमं न याति ® ® ® ना वह्नरिवेर्यमाणः ॥ ५३॥

जब हृदय (चित्त) उत्तेजित हो रहा हो तब प्रग्राहक (प्रेरित करने वाले, उद्योग में लगाने वाले) निमित्त (वस्तु) का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार चित्त शान्ति को प्राप्त नहीं होता है, जैसे हवा से प्रेरित होती अग्नि शान्त नहीं होती है । ॥५३॥

शमाय यत्स्यान्नियतं निमित्तं जातोद्धवे चेतसि तस्य कालः । एवं हि चित्तं प्रशमं नियच्छेत्प्रदीप्यमानोऽग्निरियोदकेन ॥५४॥

जब चित्त उत्तेजित हो रहा हो तब शान्तिकारक निमित्त (का सेवन) समयोचित है; क्योंकि इस प्रकार चित्त शान्त हो जाता है जैसे जल से प्रज्वलित अग्नि शान्त होती है। ॥५४॥

शमावहं यन्नियतं निमित्तं सेव्यं न तच्चेतसि लीयमाने ।एवं हि भूयो लयमेति चित्तमनीर्यमाणोऽग्निरिवाल्पसारः ॥५५॥

जब चित्त आलस्य में डुब रहा हो तब शान्तिकारक निमित्त का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार चित्त और भी ठंढा पड़ जाता है, जैसे थोड़ी-सी आग सुलगाई नहीं जाने से बुझ जाती है। ॥५५॥

प्रग्राहकं यन्नियतं निमित्त लयं गते चेतसि तस्य काल: ।क्रियासमर्थ हि मनस्तथा स्यान्मन्दायमानोऽग्निरिवेन्धनेन ॥५६॥

जब चित्त आलस्य में डुब रहा हो तब प्रग्राहक (प्रेरक) निमित्त (का सेवन) समयोचित है; क्योंकि इससे चित्त कार्य करने में समर्थ होता हैं, जैसे कि जलावन के पड़ने से बुझती हुई अग्नि (सुलगती है)। ॥५६॥

औपेक्षिकं नापि निमित्तमिष्टं लयं गते चेतसि सोद्धवे वा ।एवं हि तीव्रं जनयेदनर्थमुपेक्षितो व्याधिरिवातुरस्य ॥५७॥

जब चित्त अलसा रहा हो या उत्तेजित हो रहा हो तब उपेक्षा उत्पन्न करनेवाला निमित्त अभीष्ट नहीं है; क्योंकि इससे बड़ा अनर्थ होता है, जैसे रोगी के रोग की अवहेलना करने से बढ़ा अनिष्ट होता है। ॥५७॥

यत्स्यादुपेक्षानियतं निमित्तं साम्यं गते चेतसि तस्य कालः । एवं हि कृत्याय भवेत्प्रयोगो रथो विधेयाश्व इव प्रयात: ।।५८॥

जब चित्त साम्य अवस्था को प्राप्त हुआ हो तब उपेक्षा उत्पन्न करनेवाला निमित्त समयोचित है; क्योंकि इस प्रकार प्रयोग करने से सफलता मिलती है, जैसे विनीत अश्वोवाले रथ के चलने से (अभीष्ट स्थान पर पहुँचते हैं)। ॥५८॥

रागोद्धवव्याकुलितेऽपि चित्ते मैत्रोपसंहारविधिर्य कार्यः ।रागात्मको मुह्यति मैत्रया हि स्नेहं कफक्षोभ इवोपयुज्य। ॥५९॥

चित्त जब राग की उत्तेजना से व्याकुल हो तब मैत्री-भावना का उपचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि रागात्मक (प्रकृति का) मनुष्य मैत्री-भावना के द्वारा मूढ़ता को प्राप्त होता है, जैसे कफ का प्रकोप होने पर (तेल आदि) स्निग्ध पदार्थ का उपयोग करके मनुष्य मूर्छिंत होता है। ।।५९॥

रागोद्धते चेतसि धैर्यमेत्य निषेवितव्यं त्वशुभं निमित्तं ।रागात्मको हे्य वमुपैति शर्म कफात्मको रूक्षमिवोपयुज्य । ॥६०॥

चित्त जब राग से उत्तेजित हो तब धैर्यपूर्वक अशुभ निमित्त का सेवन करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार रागात्मक (प्रकृति का) मनुष्य शान्ति लाभ करता है, जैसे कफात्मक (प्रकृति का) मनुष्य रूखे पदार्थ का उपयोग करके शन्ति प्राप्त करता है। ॥६०॥

व्यापाददोषेण मनस्युदीर्णे न सेवितव्यं त्वशुभं निमित्तं ।द्वेषात्मकस्य ह्यशुभा वधाय पित्तात्मनस्तीक्ष्ण इवोपचारः । ॥६१॥

चित्त जब व्यापाद (द्वेष) रूपी दोष से क्षुब्ध हो तब अशुभ निमित्त का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि द्वेषात्मक मनुष्य के लिए अशुभ का सेवन वैसे ही घातक होता है, जैसे कि पित्तात्मक के लिए तीक्ष्ण तीखे पदार्थ (का) उपचार । ।।६१॥

व्यापाददोषक्षुभिते तु चित्ते सेव्या स्वपक्षोपनयेन मैत्री।द्वेषात्मनो हि प्रशमाय मैत्री पित्तात्मन: शीत इवोपचारः ॥६२॥

व्यापादरूपी दोष से चित्त के क्षुब्ध होने पर (अपने मन में सब को) अपनाकर मैत्री (-भावना) का सेवन करना चाहिए; क्योंकि द्वेषात्मक मनुष्य के लिए मैत्री-भावना वैसे ही शान्ति दायक होती है, जैसे कि पित्तात्मक के लिए ठण्ढा उपचार । ॥६२॥

मोहानुबद्धे मनसः प्रचारे मैत्राशुभा चैव भवत्ययोगः।ताभ्यां हि संमोहमुपैति भूयो वाय्वात्मको रूक्षमवोपनीय। ॥६३॥

चित्त का व्यापार मोह (मूढ़त) से युक्त होने पर मैत्री और अशुभ का चिन्तन उपयुक्त नहीं होता है; क्योंकि इन दोनों (के चिन्तन) से और भी मोह होता है, जैसे वायु से पीड़ित रहनेवाला मनुष्य रूखे पदार्थ का सेवन कर और भी मूर्छिंत होता है। ॥६३॥

मोहात्मिकायां मनसः प्रवृत्तौ सेव्यस्त्विदंप्रत्ययताविहारः ।मुढे मनस्येष हि शान्तिमार्गो वाय्वात्मके स्निग्ध इवोपचार। ।।६४।।

मानसिक प्रवृत्ति मोह-युक्त होने पर कार्य-कारण सिद्धान्त का चिन्तन करना चाहिए; क्योंकि मोह-युक्त चित्त के लिए यही शान्ति का मार्ग है, जैसे वायु से पीड़ित रहनेवाले के लिए स्निग्ध उपचार शान्ति-प्रद होता है। ॥६४॥

उल्कामुखस्थं हि यथा सुवर्ण सुवर्णकारों धमतीह काले ।काले परिप्रोक्षय ते जलेन क्रमेण काले समुपेक्षते च। ।।६५।।

जैसे सुनार इस संसार में अंगीठी पर सोने को समय पर धौंकता हैं, समय पर जल से सिक्त करता है और क्रम से समय पर उसको (चुपचाप) छोड़ देता है; ॥६५॥

दहेत्सुवर्णं हि धमन्नकाले जले क्षिपन्संशमयेदकाले । न चापि सम्यक् परिपाकमेन नयेदकाले समुपेक्षमाण: ॥ ६६॥

क्योंकि सोने को असमय में धौंककर जला डालेगा, असमय में जल में डालकर ठंढा कर देगा और असमय में (अलग) रखकर सम्यक् रूप से परिपक्क नहीं कर सकेगा । ॥६६॥

संप्रग्रहस्य प्रशमस्य चेव तथैव काले समुपेक्षणस्य। सम्यक् निमित्त मनसा त्ववेक्ष्यं नाशो हि यत्नोऽप्यनुपायपूर्वः ॥६७॥

उसी प्रकार (चित्त के) उद्योग शान्ति और समय पर उपेक्षा के लिए सम्यक् निमित्त (भावना की वस्तु) की मन से पहचान करनी चाहिए। क्योंकि अनुचित उपाय से किया गया प्रयत्न नष्ट हो जाता है ।" ॥६७॥

इत्येवमन्यायनिवर्तनं च न्यायं च तस्मै सुगतो बभाषे।भूयश्च तत्तच्चरितं विदित्वा वितर्कहानाय विधीनुवाच॥६८॥

इस प्रकार सुगत (बुद्ध) ने अनुचित का परित्याग और उचित उपाय (का सेवन) बतलाया; और फिर नन्द ने जो कुछ आचरण किया था उसको जानकर उन्होंने वितर्कों के विनाश का तरीका बतलाया। ॥६८॥

यथा भिषक् पित्तकफानिलानां य एव कोपं समुपैति दोषः।‌ शमाय तस्यैव विधिं विधत्ते व्यधत्त दोषेषु तथैव बुद्धः ॥६९॥

वैद्य जैसे कफ, पित्त, वायु में से जिस किसी दोष का प्रकोप होता उसकी शान्ति के लिए उपचार बतलाता है वैसे ही बुद्ध ने (राग-देष आदि) दोषों के सम्बन्ध में उपाय बतलाया। ॥६९॥

एकेन कल्पेन सचेन्न हन्यात्स्वभ्यस्तभावादशुभान्वितर्कान् । ततो द्वितीयं क्रममारभेत न त्वेव हेयो गुणवान्प्रयोगः ॥७०॥

यदि किसी एक उपाय से अशुभ वितर्कों का विनाश न हो सके तो किसी दूसरे उपाय को शुरू कर; किंतु उत्तम उद्योग को कभी न छोडे। ॥७०॥

अनादिकालोपचितात्मकत्वाद्वलीयसः क्लेशगणेस्य चैव।सम्यक प्रयोगस्य च दुष्करत्वाच्छेत्तुं न शक्याः सहसा हि दोषाः। ॥७१॥

अनादि काल से संचित होने के कारण क्लेशो का समूह बलवान् हो जाता है और सम्यक रूप से उद्योग करना कठिन है, इसलिए सहसा ही दोषों को उन्मूलित (नष्ट) नहीं किया जा सकता। ॥७१॥

अण्व्या यथाण्या विपुलाणिरन्या निर्वाह्यते तद्विदुषा नरेण । तद्वत्तदेवाकुशलं निमित्तं क्षिपेन्निमित्तान्तरसेवनेन ।।७२॥

जैसे कुशल मनुष्य (कारीगर) छोटी पच्चल (कील) देकर बड़ी पच्चल को बाहर निकाल लेता है, उसी प्रकार दूसरे निमित्त का सेवन करके अकुशल निमित्त को निकाल फेंकना चाहिए। ॥७२॥

तथाप्यथाध्यात्मनवग्रहस्वान्नैवोपशाम्येदशुभो वितर्का:। हेयः स तद्दोषपरीक्षणेन सश्वापदो मार्ग इवाध्वगेन ॥७३॥

इतना होने पर भी यदि हाल में आध्यात्म (मार्ग) ग्रहण करने के कारण अशुभ विर्तक (विचार) शान्त न हो तो उसकी बुराई की जाँच करके उसका परित्याग करना चाहिए, जैसे कि यात्री हिंसक पशुओं से सेवित मार्ग को छोड़ देता है। ॥७३॥

यथा क्षुधार्तोऽपि विषेण पृक्त जिजीविषुर्नेच्छति भोक्तु मन्नं । तथैव दोषावहमिस्यवेत्य जहाति विद्वानशुभं निमित्तं। ॥७४॥

जैसे भूखा होने पर भी मनुष्य विष-मिला हुआ अन्न नहीं खाना चाहता है, वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य अशुभ निमित्त को दोषावह (दोष उत्पन्न करने वाला) समझकर छोड़ देता है। ॥७४॥

न दोषतः पश्यति यो हि दोषं कस्तं ततो वारयितुं समर्थः। गुणं गुणे पश्यति यश्च यत्र स वार्यमाणोऽपि ततः प्रयाति ॥७५॥

जो आदमी दोष को दोष नहीं समझता है उसको उससे कौन हटा सकता है और जो आदमी जिस गुण को गुण समझता है वह रोका जाने पर भी वहीं जाता है। ॥७५॥

व्यपत्रपन्ते हि कुलप्रसूता मनःप्रचारैरशुभै: प्रवृत्ते:। कण्ठे मनस्वीव युवा वपुष्मानचाक्षु षैरप्रयतैर्विषक्त: ॥७६॥

उत्तम कुल में उपन्न मनुष्य अपनी अशुभ मानसिक प्रवृत्तियों से लज्जित होते हैं, जेैसे कि कोई मनस्वी औ्र रूपवान् युवा अपने गले में लगे (लटकते) हुए अदर्शनीय एवं अपवित्र वस्तुओं से लज्जा को प्राप्त होता है। ॥७६॥

निधुर्यमानास्त्वथ लेशतोऽपि तिष्ठे युरेवाकुशला वितर्काः।कार्यान्तरैरध्ययनक्रियाद्यैः सेव्यो विधिर्विस्मरणाय तेषां ॥७७॥

निवारण किये जाने पर यदि लेशमात्र भी अकुशल वितर्क (बुरे विचार) रह जाये तो अध्ययन आदि दूसरे कार्यों द्वारा उन्हें भुला देने का उपाय करना चाहिए। ॥७७॥ 

स्वप्तव्यमप्येव विचक्षणेन कायक्लमो वापि निषेवितव्यः।
न त्वेव संचिन्त्यमसन्निमित्तं यत्रावसक्तस्य भवेदनर्थ: ॥७८॥

समझदार आदमी को सो रहना चाहिए या किसी शारीरिक श्रम में लग जाना चाहिए; किन्तु कभी भी उस अकुशल निमित्त का चिन्तन नहीं करना चाहिए, जिसमें लीन होने पर अनर्थ हो सकता है। ॥७८॥

यथा हि भीतो निशि तस्करेभ्यो द्वारं प्रियेभ्योऽपि न दातुमिच्छेत प्राज्ञस्तथा संहरति प्रयोगं समं शुभस्याष्यभस्य दोषै: ॥७९॥

जैसे चोरों से डरा हुआ मनुष्य रात्रि-काल में अपने प्रिय जनों के लिए भी द्वार नहीं खोलता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य दोषों के डर से शुभ और अशुभ (विचारों) का प्रयोग (अभ्यास, प्रवेश) एक साथ रोक देता है। ॥७९॥

एवंप्रकारैरपि यद्युपायैर्निवार्यमाणा न पराङ्खाः स्युः ।ततो यथास्थूलनिबर्हणेन सुवर्णदोषा इव ते प्रहेया: ॥८०॥

यदि ऐसे ऐसे उपायों से भी निवारण किये जाने पर वे विमुख न हों तो सोने की गन्दगियों (सुवर्ण-कणों में मिले हुए रज-कणों) के समान उन (दोषों, बुरे विचारों) की स्थूलता के अनुसार क्रम से उन्हें छोड़ देना चाहिए। II८०॥

द्रुतप्रयाणप्रभृतींश्च तीक्ष्णात्कामप्रयोगात्परिसखिद्यमान:।यथा नरः संश्रयते तथैव प्राज्ञेन दोष्वपि वर्तितव्यं ॥८१॥

जैसे तीव्र काम से पीड़ित मनुष्य तेजी से टहलना आदि उपायों का आश्रय लेता है वैसे ही दोषों के विषय में भी समझदार आदमी को बरतना चाहिए। ॥८१॥

ते चेदलब्धप्रतिपक्षभावा नैवोपशाम्येयुरसद्वितर्काः ।मुहूर्तमप्यप्रतिबध्यमाना गृहे भुजंगा इव नाधिवास्याः। ॥८२॥

यदि उनके विरोधी भाव उत्पन्न न हो सकने के कारण वे अकुशल वितर्क (बुरे विचार) शान्त न हों तो घर में घुसे हुए सर्पों के समान उन्हें क्षण भर के लिए भी निर्विरोध नहीं ठहरने देना चाहिए। ॥८२॥

दन्तेऽपि दन्तं प्रणिधाय कामं ताल्वग्रमुत्पीड्य च जिह्वयापि। चित्तेन चित्तं परिगृह्य चापि कार्य: प्रयत्नो न तु तेऽनुवृत्ता: ॥८३॥

दाँत पर दाँत रखकर, जिह्वा से तालु के अम्रभाग को उत्पीडित कर, और चित्त से चित्त का निग्रह करके प्रयत्न करना चाहिए; किंतु उनके अनुकूल नहीं होना चाहिए (उनके आगे झुकना नहीं चाहिए)। ॥८३॥

किमत्र चित्रं यदि वीतमोहो वनं गतः स्वस्थमना न मुह्यते।आक्षिप्यमाणो हृदि तन्निमित्तैर्न क्षोभ्यते यः स कृती स धीरः ॥८४॥

इसमें क्या आश्चर्य यदि मोह-रहित मनुष्य वन में जाकर स्वस्थ-चित्त रहे और मोह में न पड़ें ? (दोषों के कारणरूप अकुशल) निमित्तों द्वारा हृदय में पीड़ित होता हुआ जो क्षुब्ध नहीं होता है, वही धन्य है वही धीर है। ॥८४॥

तदार्यसत्याधिगमाय पूर्वं विशोधयानेन नयेन मार्गं।यात्रागतः शत्रुविनिग्रहार्थ राजेव लक्ष्मीमजितां जिगीषन ॥८५॥

इसलिए आर्यसत्य की प्राप्ति के लिए इस विधि से पहले मार्ग को शुद्ध करो; जैसे शत्रु के निग्रहार्थ यात्रा पर जानेवाला राजा अविजित लक्ष्मी को जीतने की इच्छा से पहले रास्ता साफ करवाता है। ॥८५॥

एतान्यरण्यान्यभितः शिवानि योगानुकूलान्यजनेरितानि।कायस्य कृत्वा प्रविवेकमात्रं क्लेशप्रहाणाय भजस्व मार्गं ॥८६॥

ये मङ्गलमय योगानुकूल विजन वन चारों ओर फैले हुए हैं। शरीर को एकान्त में करके मार्ग (उचित उपाय) का सेवन करो। ।।८६॥

कौण्डिन्यनन्दकृमिलानिरुध्दास्तिष्योपसेनौ विमलोऽथ राध:। बाष्पोत्तरौ धौतकिमोहराजौ कात्यायनद्रव्यपिलिन्दवत्साः ॥८७॥

कौण्डिण्य, नन्द, कृमिल, अनिरुद्ध, तिष्य, उपसेन, विमल, राध, बाष्प, उत्तर, धौतकि, मोहराज, कात्यायन, द्रव्य, पिलिन्दवत्स, ॥८७॥

भद्दालिभद्रायणसर्पदाससुभूतिगोदत्तसुजातवत्सा:।संग्रामजिद्भद्रजिदश्वजिश्च श्रोणश्च शोनश्च स कोटिकर्णः॥८८॥

भाद्दालि, भद्रायण, सर्पदास, सुभूति, गोदत्त, सुजात, वत्स, संग्राम-जित्, भद्रजित्, अश्वजित्, श्रोण, शोण, कोटिकर्ण, ॥८८॥

क्षमाजितो नन्दकनन्दमाता वुपालिवागीशयशोयशोदाः।महाह्वयो वल्कलिराष्ट्रपालौ सुदर्शनस्वागतमेघिकाश्च ॥८९॥

क्षेमा, अजित, नन्दक, नन्दमाता, (महाप्रजापती गौतमी), उपालि, वागीश, यश, यशोदा, महाह्वय (महानाम), वल्कलि, राष्ट्रपाल, सुदर्शन, स्वागत, मेघिक, ।।८९॥

स कप्फिनः काश्यप औरुविल्वो महामहाकाश्यपतिष्यनन्दा:। पूर्णश्च पूर्णश्च स पूर्णकश्च शोनापरान्तश्च स पूर्ण एवं ॥९०॥

कप्फिन, औरुविल्व काश्यप, महामहाकाश्यप, तिष्य, नन्द, पूर्ण, पूर्ण, पूर्णक, पूर्ण, शोणापरान्त। ॥९०॥

शारद्वतीपुत्रसुबाहुचुन्दाः कोन्देयकाप्यभृगुकुण्ठधानाः ।सशैवलौ रेवतकौष्ठिलौ च मौद्गल्यगोत्रश्च गवांपतिश्च ॥९१॥

शारद्वतीपुत्र, सुबाहु , चुन्द, कोन्देय, कापूय, भृगु , कुण्ठधान, शैवल, रेवत, कौष्ठिल, मौद्गल्यायन और गवांपति ने ॥९१॥

यं विक्रमं योगविधावकुर्वस्तमेव शीघ्रं विधिवत्कुरुष्व ।ततः पदं प्राप्स्यसि तैरवाप्त' सुखावृतैस्वं नियतं यशश्च ॥९२॥

योगाभ्यास में जो पराक्रम किया था वही तुम भी शीघ्र विधिपूर्वक करो और तब निश्चय ही वह पद और यश पाओगे जो कि इन (उपर्युक्त) धन्य व्यक्तियों ने पाया था। ॥९२॥

द्रव्यं यथा स्यात्कटुकं रसेन तच्चोपयुक्तं मधुरं विपाके।तथैव वीर्यं कटुकं श्रमेण तस्यार्थसिद्धयै मधुरा विपाकः।।९३॥

जिस प्रकार दव्य-विशेष का रस कडवा होता है और उसका उपयोग करने पर मीठा फल मिलता है, उसी प्रकार थकावट के कारण उद्योग कटु (कष्टप्रद और अप्रिय) होता है, किंतु लक्ष्य की सिद्धि हो जाने पर मीठा फल मिलता है। ।॥९३॥

वीर्यं परं कार्यकृतौ हि मूलं बीर्याद्दते काचन नास्ति सिद्धिः । उदेति वीर्यादिह सर्वेसंपन्निर्वीर्यता चेत्सकलश्च पाप्मा ॥९४॥

कार्य की सफलता का मूल कारण है उत्तम उद्योग, उद्योग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती है, उद्योग से ही सब समृद्धियों का उदय होता है और जहां उद्योग नहीं है वहां पाप ही पाप है ॥९४॥

अलब्धस्यालाभो नियतमुपलब्धस्य विगम-स्तथैवात्मावज्ञा कृपणमधिकेभ्य: परिभवः। तमो निस्तेजत्स्वं श्रुतिनियमतुष्टिव्युपरमो नृणां निर्वीर्याणां भवति विनिपातश्च भवति ॥९५॥

अनुद्योगी मनुष्यों को निश्चय ही अप्राप्त वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होती है और उनकी प्राप्त वस्तुओं का भी नाश हो जाता है, उनका आत्म-सम्मान चला जाता है, वे दीन हीन हो जाते हैं, बलवानों से अपमानित होते हैं, मानसिक अन्धकार में रहते हैं, उनका तेज क्षीण हो जाता है, विद्या, संयम और संतोष नष्ट हो जाता है, (सब प्रकार से) इनका पतन होता है ॥९५॥

नयं श्रुत्वा शक्तो यदयमभिवृद्धिं न लभते परं धर्म ज्ञात्वा यदुपरि निवासं न लभते । गृहं त्यक्त्वा मुक्तौ यदयमुपशान्तिं न लभते । निमित्तं कौसीद्यं भवति पुरुषस्यात्र न रिपुः ॥९६॥

शक्तिशाली मनुष्य उपाय सुनकर अपनी उन्नति जो नहीं करता है, धर्म उत्तम सुनकर ऊपर का निवास (उत्तम पद) जो नहीं प्राप्त करता है और मुक्ति के लिए घर छोड़कर शान्ति लाभ जो नहीं करता है, इसका कारण उसका अपना ही आलस्य है, न कि (कोई बाहरी) शत्रु ॥९६॥

अनिक्षिप्तोत्साही यदि खनति गां वारि लभते । प्रसक्तं व्यामथ्नन् ज्वलमरणिभ्यां जनयति । प्रयुक्ता योगे तु ध्रु वमुपलभन्ते श्रमफलं द्रतं नित्यं यान्त्यो गिरिमपि हि भिन्दन्ति सरितः। ॥९७॥

उत्साह खोये विना पृथ्वी को खोदने वाला मनुष्य जल प्राप्त करता है, लकड़ियों को लगातार रगड़नेवाला मनुष्य अग्नि उत्पन्न करता है, योगाभ्यासी पुरुष अवश्य अपने परिश्रम का फल प्राप्त करते हैं और निरन्तर द्रुतगति से बहनेवाली नदियाँ पर्वत को भी फोड़ती हैं। ॥९७॥

कृष्ट्वा गां परिपाल्य च श्रमशतैरश्रोति सस्यश्रियं यत्नेन प्रविगाह्य सागरजलं रत्नश्रिया क्रीडति । शत्रूणामवधूय वीर्यमिषुभिर्भुङ्क्ते नरेन्द्रश्रियं तद्वीर्य कुरु शान्तये विनियतं वीर्ये हि सर्वर्ध्दयः ॥९८॥

भूमि को जोतकर और अत्यन्त परिश्रमपूर्वक (खेत की) रखवाली कर मनुष्य उत्तम सस्य प्राप्त करता है, प्रयत्नपूर्वक समुद्र के जल में प्रविष्ट होकर वह (मनुष्य) उत्तम रत्न-राशि से क्रीड़ा करता है, तीरों से शत्रुओं के उद्योग को निष्फल कर वह (मनुष्य) राज-लक्ष्मी का उपभोग करता है; अतः शान्ति प्राप्त करने के लिए उद्योग करो; क्योंकि उद्योग में ही सब समृद्धियों का निवास है। ॥९८॥

सौन्दरनन्दे महाकाव्ये आर्यसत्यव्याख्यानो नाम षोडशः सर्ग: ।

सौन्दरनन्द महाकाव्य में "आर्य-सत्य-व्याख्यान" नामक षोडश (सोलहवां) सर्ग समाप्त । 


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