Sunday, March 21, 2021

सौन्दरनन्द-महाकाव्य, आज्ञा-व्याकरण, सर्ग १८

सौन्दरानन्द महाकाव्य, अष्टादश (१८ वां) सर्ग,

आज्ञा-व्याकरण (उपदेश):

अथ द्विजो बाल इवाप्तवेदः क्षिप्रं वणिक् प्राप्त इवाप्तलाभः । जित्वा च राजन्य इवारिसैन्यं नन्दः कृतार्थो गुरुमभ्यगच्छत् ॥१॥

तथा जैसे द्विज-बालक वेदाध्ययन समाप्त करके, वणिक तुरंत लाभ उठाकर, क्षत्रिय (राजा) शत्रु-सेना को जीतकर (अपने गुरु लाभ या उपदेशक के समीप) पहुँचता है, वैसे ही नन्द कृतार्थ होकर अपने गुरु (बुद्ध) के समीप गया । ॥१॥

द्रष्टुं सुखं ज्ञानसमाप्तिकाले गुरुहि शिष्यस्य गुरोश्च शिष्यः । परिश्रमस्ते सफलो मयीति यतो दिदृक्षास्य मुनौ बभूव ॥२॥

विद्या-समाप्ति के समय शिष्य के लिए गुरु का दर्शन और गुरु के लिए शिष्य का दर्शन आनन्द-दायक होता है । 'आपने मेरे लिए जो परिश्रम किया वह सफल हुआ' ऐसा सोचकर उसने मुनि (बुद्ध) का दर्शन करना चाहा । ॥२॥

यतो हि येनाधिगतो विशेषस्तस्योत्तमांसोऽर्हति कर्तुमिड्यां । आर्यः सरागोऽपि कृतज्ञभावात्प्रक्षीणमानः किमु वीतरागः ॥ ३॥

क्योंकि जिसने जिससे विशेष (लाभ, ज्ञान) प्राप्त किया है उसको उसकी उत्तम पूजा करनी चाहिए । राग-युक्त होने पर भी आर्य पुरुष (आर्याष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने वाला) कृतज्ञ भाव से (अपने गुरु की) पूजा करता है, फिर मान-रहित और राग-रहित व्यक्ति का क्या कहना ? ॥३॥ 

यस्यार्थकामप्रभवा हि भक्तिस्ततोऽस्य सा तिष्ठति रूढमूला । धर्मान्वयो यस्य तु भक्तिरागस्तस्य प्रसादो हृदयावगाढः । ॥४॥

जिसकी भक्ति अर्थ और काम से उत्पन्न होती है उसकी वह भक्ति बद्धमूल होकर रहती है। किंतु जिसकी भक्ति धर्म का अनुसरण करने से उत्पन्न होती है उसकी श्रद्धा हृदय में जड़ जमाती है ! ॥४॥ 

काषायवासा: कनकावदातस्तत: स मूर्न्धा गुरवे प्रणेमे । वातेरितः पल्लवताम्रराग: पुष्पोज्ज्वलीश्रीरिव्र कर्णिकार: ॥५॥

तब उस सुनहले रंगवाले काषाय वस्त्रधारी ने मस्तक झुकाकर गुरु को प्रणाम किया, मानो अपने पल्लवों से ताम्रवर्ण तथा अपने फूलों से उज्ज्वल कर्णिकार वृक्ष वायु-प्रकम्पित होकर नीचे झुक रहा हो। ॥५॥

अथात्मनः शिष्यगुणस्य चैव महामुनेः शास्तृगुणस्य चैव । संदशनार्थे स न मानहेतोः स्वां कार्यसिद्धिं कथयांबभूव ॥६॥

तब, अभिमान से नहीं, किंतु अपनी उत्तम शिष्यता तथा महामुनि के उपदेश की उत्कृष्टता दिखलाने के लिए, उसने अपनी कार्यसिद्धि कह सुनाई:-॥६॥ 

यो दृष्टिशल्यो हृदयावगाढः प्रभो भृशं मामतुदत्सुतीक्ष्णः । स्वद्वाक्यसंदंशमुखेन मे स समुद्धृ तः शल्यहृतेव शल्यः ।।७।। 

" जो कुदृष्टिरूपी तीक्ष्ण शल्य, हे प्रभो मेरे हृदय में गढ़ा हुआ था और मुझे अत्यन्त पीड़ित कर रहा था वह अपके वाक्यरूपी संदश (संड़सी) द्वारा बाहर खींच लिया गया, जैसे शल्य निकालने वाले (यंत्र या वैद्य) के द्वारा शल्य बाहर निकाला जाता है । ॥७॥ 

कथंकथाभावगतोऽस्मि येन छिन्न: स निःसंशय संशयो मे । त्वच्छासनात्सत्पथमागतोऽस्मि सुदेशिकस्येव पथि प्रनष्टः ॥८॥

हे संशय-रहित, वह संशय, जिसके कारण मैं संदेह-सूचक प्रश्न किया करता था, नष्ट हो गया । आपके उपदेश से मैं सन्मार्ग पर आ गया हूँ, जैसे कि रास्ता भूला हुआ आदमी पथ-प्रदर्शक के उपदेश से ठीक रास्ते पर आ जाता है। ॥८॥ 

यत्पीतमास्वादवशेन्द्रियेण दर्पेण कन्दर्पविषं मयासीत् । तन्मे हतं त्वद्वचनागदेन विषं विनाशीव महागदेन ॥९॥

आस्वाद के वशीभूत होकर मैंने मद से जिस कामरूपी विष को पिया था वह आपके वचनरूपी औषधि के द्वारा नष्ट हो गया, जैसे कि प्राण-विनाशक विष महौषधि (के सेवन) से नष्ट हो जाता है । ॥९॥ 

क्षयं गतं जन्म निरस्तजन्मन्सद्धर्मचर्यामुषितोऽस्मि सम्यक् । कृत्स्नं कृतं मे कृतकार्य कार्ये लोकेषु भूतोऽस्मि न लोकधर्मा ॥१०॥

हे जन्म-मुक्त, मैं जन्म से मुक्त हो गया और अच्छी तरह सद्धर्म का आचरण कर रहा हूँ हे कृतकार्य, मैंने सारा कार्य कर लिया । यद्यपि मैं लोक (संसार) में हूँ, तो भी लोक-धर्म से लिप्त नहीं हूँ। ॥१०॥

मैत्रीस्तनीं व्यञ्जनचारुसास्नां सद्धर्मदुग्धां प्रतिभानशृङ्गां । तवास्मि गां साधु निपीय तृप्तस्तृषेव गामुत्तम वत्सवर्ण: ॥११॥

मैत्री जिसके स्तन हैं, स्पष्ट अभिव्यक्ति जिसका गलकम्बल (गाय-बैल के गले में लटकने वाला चमड़ा) है, सद्धर्म जिसका दूध है और प्रतिभान (ज्ञान) जिसके सींग हैं ऐसी आपकी वाणीरूपी गाय (के दूध) को पीकर मैं तृप्त हो गया हूँ, जैसे भूख से व्याकुल बछड़ा, हे उत्तम, अपनी गाय (के दूध) को पीकर तृप्त हो जाता है । ॥११॥

यत्पश्यतश्चाधिगमो ममायं तन्मे समासेन मुने निबोध । सर्वज्ञ कामं विदितं तवैतत्स्वं तूपचारं प्रविवक्षुरस्मि । ॥१२॥

मुझ में जिस दृष्टि के होने से मैंने यह (अर्हत्व) प्राप्त किया है उसको, हे मुने, संक्षेप से सुनिए । हे सर्वज्ञ, आपको तो यह विदित ही है, तो भी मैं अपना उपचार कहना चाहता हूँ । ॥१२॥ 

अन्येऽपि सन्तो विमुमुक्षवो हि श्रुत्वा विमोक्षाय नयं परस्य । मुक्तस्य रोगादिव रोगवन्तस्तेनैव मार्गेण सुखं घटन्ते ॥१३॥

क्योंकि मुक्ति चाहने वाले दूसरे लोग भी दूसरे के (द्वारा अनुसृत) मोक्ष-मार्ग को सुनकर उसी मार्ग से सुख-पूर्वक प्रयत्न करते हैं, जैसे कि रोगी मनुष्य रोग से मुक्त हुए के मुक्ति-उपाय को सुन कर उसी उपाय से (स्वस्थ होने के लिए) यत्न करते हैं । ॥१३॥ 

उर्व्यादिकान् जन्मनि वेद्मि धातून्नात्मानमुर्व्यादिषु तेषु किंचित् । यस्मादतस्तेषु न मेऽस्ति सक्तिर्बहिश्च कायेन समा मतिर्मे ॥१४॥

मैं जानता हूँ कि जन्म (के मूल) में पृथ्वी आदि धातु विद्यमान हैं और उन पृथ्वी आदि धातुओं में कोई आत्मा नहीं है; इसलिए उनमें मेरी आसक्ति नहीं है । शरीर को और शरीर के बाहरी पदार्थ को मैं समान समझता हूँ। ॥ १४॥

स्कन्धाश्च रूपप्रभृतीन्दशार्धान्पश्यामि यस्माञ्चपलानसारान् । अनात्मकांश्चव वधात्मकांश्च तस्माद्विमुक्तोऽस्म्यशिवेभ्य एभ्यः॥१५॥

क्योंकि मैं रूप आदि पञ्च-स्कन्धों* को चञ्चल, असार, अनात्म और विनाशक (अकुशल) देखता हूँ, इसलिए मैं इन अमङ्गल वस्तुओं से अलग हो गया हूँ । ॥१५॥ 

(जीव यह रुप, संज्ञा, संस्कार, वेदना और विज्ञान इस पंच-स्कन्ध* का जोड़ हैं)

यस्माच्च पश्याम्युदयं व्ययं च सर्वास्ववस्थास्वहमिन्द्रियाणां । तस्मादनित्येषु निरात्मकेषु दुःखेषु मे तेष्वपि नास्ति संगः॥१६।। 

मैं देखता हूँ कि सब अवस्थाओं में इन्द्रियों का उदय और व्यय होता है, इसलिए इन अनित्य, अनात्म और दुःखरूप इन्द्रियों में मेरी आसक्ति नहीं है। ॥१६॥

यतश्चलाकं समजन्मनिष्ठं पश्यामि नि:सारमसच्च सर्वे । अतो धिया मे मनसा विबद्धमस्मीति मे नेञ्जितमस्ति येन ॥१७॥ 

क्योंकि संसार को जन्मशील और मरणशील तथा सब पदाथों को असार और असत् (आत्मा से रहित) देखता हूँ .........जिससे कि मुझ में अहंभाव (मैं हूँ) यह विकार नहीं रहा । ॥१७॥ 

चतुर्विधे नैकविधप्रसंगे यतोऽहमाहारविधावसक्तः । अमूर्छितश्चाग्रथितश्च तत्र त्रिभ्यो विमुक्तोऽस्मि ततो भवेभ्यः ॥१८॥

अनेक प्रकार की आसक्तियों सहित चार प्रकार के आहार* में मैं आसक्त, मूढ़ (बेसुध) या बंधा हुआ नहीं हूँ, इसलिए मैं तीन भवों* से मुक्त हूँ। ॥१८॥

(चार प्रकार के आहार*-१) कवलीकार आहार (स्थूल व सूक्ष्म आहार), २) स्पर्शाहार (इन्द्रिय, विषय और विज्ञान के संयोग से उत्पन्न होने वाला आहार), ३) मनस्संचेतनाहार (मानसिक कर्म या विचार वाला आहार) 

(तीन भव* हैं- रुप-भव, अरुप-भव, काम-भव)

अनिश्रितश्चाप्रतिबद्धचित्तो दृष्टश्रुतादौ व्यवहारधर्में । यस्मात्समात्मानुगतश्च तत्र तस्माद्विसंयोगगतोऽस्मि मुक्तः ॥१९॥

देखने सुनने आदि के व्यावहारिक धर्म (क्रिया) में मैं आश्रित या आसक्त-चित्त नहीं हूँ, उसमें मेरा चित्त समभाव को प्राप्त हो गया है, इसलिए मैं उससे अलग और मुक्त हो गया हूँ।" ॥१९॥ 

इत्येवमुक्त्वा गुरुबाहुमान्यात्सर्वेण कायेन स गां निपन्नः । प्रवेरितो लोहितचन्दनाक्तो हैमो महास्तम्भ इवाबभासे ॥२०॥

इतना कहकर गुरु के प्रति सम्मान-भाव होने के कारण उसने सम्पूर्ण शरीर से पृथ्वी का स्पर्श किया, जैसे लाल चन्दन से लिप्त सुवर्ण-निर्मित महास्तम्भ पृथ्वी पर झुक गया हो । ॥२०॥ 

ततः प्रमादात्प्रमृतस्य पूर्वं श्रुत्वा धृतिं व्याकरणं च तस्य ।
धर्मान्वयं चानुगतं प्रसादं मेघस्वरस्तं मुनिराबभाषे ॥२१॥ 
तब जो पहले प्रमाद-वश (सन्मार्ग से) भटका था उसका धैर्य, धर्म-व्याख्या, धर्माचरण और श्रद्धा देखकर, मुनि ने मेघ के समान (गम्भीर) वाणी में कहा:- ॥२१॥ 

उत्तिष्ठ धर्में स्थित शिष्यजुष्टे किं पादयोर्मे पतितोऽसि मूर्ध्रा । अभ्यर्चनं मे न तथा प्रणामो धर्में यथैषा प्रतिपत्तिरेव ॥२२॥

"हे शिष्य-धर्म में रहनेवाले, उठो। क्यों मेरे चरणों पर मस्तक टेककर पड़े हुए हो ? मुझे प्रणाम करना मेरा वैसा सम्मान नहीं है जैसा कि यह धर्माचरण । ।॥२२॥

अद्यासि सुप्रव्रजितो जितात्मन्नैश्वर्यमप्यात्मनि येन लब्धं । जितात्मनः प्रव्रजनं हि साधु चलात्मनो न त्वजितेन्द्रियस्य ॥२३॥

हे जितात्मन् , आज तुम्हारा प्रव्रजित होना (संन्यास ग्रहण करना) सफल हुआ, जो तुमने अपने उपर ईश्वरत्व (अधिकार) प्राप्त किया। जिसने अपने को जीत लिया है उसी का प्रव्रजित होना उचित है, न कि चंचलात्म अजितेन्द्रिय व्यक्ति का । ॥२३॥ 

अद्यासि शौचेन परेण युक्तो वाक्कायचेतांसि शुचीनि यत्ते । अतः पुनश्चाप्रयतामसौम्यां यत्सौम्य नो वेक्ष्यसि गर्भशय्यां ॥२४॥

आज तुम आत्यन्तिक शुद्धि से युक्त हो, क्योंकि तुम्हारा शरीर, वचन और चित्त शुद्ध है और क्योंकि, हे सोम्य, अब फिर अपवित्र और असौम्य गर्भ-शय्या में प्रवेश नहीं करोगे। ॥२४॥ 

अद्यार्थवत्ते श्रुतवच्छु तं तच्छु तानुरूपं प्रतिपद्य धर्म । कृतश्रुतो विप्रतिपद्यमानो निन्द्यो हि निर्वीर्य इवात्तशस्त्रः ॥२५॥

आज तुम्हारा वह शास्त्र-ज्ञान सार्थक है, तुमने शास्त्र के अनुसार धर्माचरण किया, क्यों कि शास्त्र का अभ्यास करके उसके अनुसार आचरण नहीं करने वाला निन्दा का पात्र होता है, जैसे शस्त्र ग्रहण करके उद्योग (युद्ध) नहीं करनेवाले की निन्दा होती है । ॥२५॥ 

अहो धृतिस्तेऽविषयात्मकस्य यत्त्वं मतिं मोक्षविधावकार्षीः। यास्यामि निष्ठामिति बालिशो हि
जन्मक्षयात्त्रासमिहाभ्युपैति ॥२६॥ 

अहो तुम्हारा धैर्य ! विषयों से विरक्त होकर तुमने मोक्ष प्राप्ति के उपाय में अपना मन लगाया । 'मेरा अन्त हो जायगा' ऐसा सोचकर मूर्ख मनुष्य जन्म-विनाश से इस संसार में भयभीत होता है । ॥२६॥ 

दिष्ट्या दुरापः क्षणसंनिपातो नायं कृतो मोहवशेन मोघः । उदेति दुःखेन गतो ह्यधस्तात्कूर्मो युगच्छिद्र इवार्णवस्थः ॥२७॥

(कुछ ही क्षणों का) यह (मनुष्य-जीवन) दुर्लभ है, सौभाग्य से तुमने मोहवश इसे व्यर्थ नहीं बिताया। नीचे (की योनि में) गया हुआ मनुष्य कठिनाई से ऊपर आता है, जैसे कि समुद्र में रहनेवाला कूर्म कठिनाई से जुए (Trap) के छेद में आता है । ॥२७॥ 

निर्जित्य मारं युधि दुर्निवारमद्यासि लोके रणशीर्षशूरः । शूरोऽप्यशूरः स हि वेदितव्यो दोषैरमित्रैरिव हन्यते यः ॥२८॥

युद्ध में दुर्जय मार (चित्त के दोषों) को जीतकर आज तुम संसार में संग्राम के अग्रभाग में रहनेवाले वीर हो; क्योंकि उस वीर को भी कायर ही समझना चाहिए, जो कि दोषों के द्वारा ऐसे मारा जाता है जैसे कि शत्रुओं के द्वारा । ॥२८॥ 

निर्वाप्यरागाग्निमुदीर्णमद्य दिष्ट्या सुखं स्वप्स्यसि वीतदाहः । दुःखं हि शेते शयनेऽप्युदारे क्लेशाग्निना चेतसि दह्यमानः ॥२९॥

सौभाग्य से आज तुमने प्रदीप्त रागाग्नि को शान्त किया, अब तुम दाह-रहित होकर सुखपूर्वक सोओगे; क्योंकि जिसका चित्त क्लेशाग्नि से जलता रहता है, वह उत्तम शय्या पर भी कष्टपूर्वक ही सोता है। ॥२९॥

अभ्युच्छितो द्रव्यमदेन पूर्वमद्यासि तृष्णोपरमात्समृद्धः । यावत्सतर्षः पुरुषो हि लोके तावत्समृद्धोऽपि सदा दरिद्रः ॥३०॥

पूर्व में तुम द्रव्य के मद से मत्त थे और आज तृष्णा के नष्ट हो जाने से समृद्धिशाली हो; क्योंकि संसार में जब तक मनुष्य तृष्णा से युक्त रहता है तबतक समृद्धिशाली होने पर भी वह दरिद्र ही रहता है। ॥३०॥

अद्यापदेष्टुं तव युक्तरूपं शुद्धोदनो मे नृपतिः पितेति । भ्रष्टस्य धर्मात्पतृभिर्निपातादश्लाघनीयो हि कुलापदेशः ॥३१॥

आज तुम्हारे लिए यह कहना उचित है कि राजा शुद्धोदन मेरे पिता हैं; क्यों कि जो अपने पूर्वजों के द्वारा पालित धर्म से च्युत हो गया है उसके लिए अपने कुल की घोषणा करना प्रशंसनीय नहीं है। ॥३१॥ 

दिष्ट्यासि शान्तिं परमामुपेतो निस्तीर्णकान्तार इवाप्तसार: । सर्वो हि संसारगतो भयार्तो यथैव कान्तारगतस्तथैव ॥३२॥

सौभाग्य से तुमने परम शान्ति प्राप्त कर ली है, जैसे मरुभूमि (या बीहड़ वन) को पार करके सम्पत्ति प्राप्त करने वाला मनुष्य शान्ति लाभ करता है; क्योंकि संसार (-चक्र) में पड़े हुए सभी लोग विपत्ति से ऐसे पीड़ित रहते हैं जैसे कि कान्तार में गये हुए लोग । ॥३२॥ 

आरण्यकं भैक्षचरं विनीतं द्रक्ष्यामि नन्दं निभृतं कदेति । आसीत्पुरस्तात्त्वयि मे दिदृक्षा तथासि दिष्ट्या मम दर्शनीयः॥३३॥

मैं नन्द को कब अरण्य-वासी मिक्षाचारी विनीत और एकान्त-सेवी देखूंगा, पूर्व में मेरी ऐसी ही इच्छा थी, सो सौभाग्य से मैं आज तुम्हें उसी रूप में देख रहा हूँ । ॥३३॥

भवत्यरूपीऽपि हि दर्शनीयः स्वलंकृतः श्रेष्ठतमैर्गुणैः स्वैः । दोषैः परीतो मलिनीकरैस्तु सुदर्शनीयोऽपि विरूप एव ॥३४॥

अपने श्रेष्ठ गुणों से अलंकृत होकर कुरूप मनुष्य भी दर्शनीय हो जाता है। किंतु गंदे दोषों से व्याप्त होकर रूपवान् भी कुरूप हो जाता है। ॥३४॥ 

अद्य प्रकृष्टा तव बुद्धिमत्ता कृत्स्नं यया ते कृतमात्मकार्य । श्रुतोन्नतस्यापि हि नास्ति बुद्धिर्नोत्पद्यते श्रेयसि यस्य बुद्धिः ॥३५॥ 

आज तुम्हारी बुद्धि, उत्कृष्ट है, जिसके द्वारा तुमने अपना सारा कार्य कर लिया । विद्वान् होने पर भी यदि किसी को श्रेयस्कर बुद्धि न हो तो उसको बुद्धि नहीं है । ॥३५॥

उन्मीलितस्यापि जनस्य मध्ये निमीलितस्यापि तथैव चक्षुः । प्रज्ञामयं यस्य हि नास्ति चक्षुश्चक्षुर्ने तस्यास्ति सचक्षुषोऽपि ॥३६॥

उसी प्रकार खुली आँखोवाले लोगों के बीच बन्द आँखोंवाले को भी दृष्टि हो सकती है; क्योंकि जिसको प्रज्ञा-चक्षु नहीं है उसको चक्षु होने पर भी (वास्तव में) चक्षु नहीं है । ॥३६॥ 

दुःखप्रतीकारनिमित्तमार्तः कृष्यादिभिः खेदमुपैति लोकः । अजस्रमागच्छति तच्च भूयो ज्ञानेन यस्याद्य कृतस्त्वयान्तः ॥३७॥ 

दुःख-प्रतीकार के लिए दुःखी जगत् कृषि आदि कार्य करके श्रान्त होता है और फिर भी उसको वह दुःख सदा होता ही रहता है, जिसका कि तुमने आज ज्ञान द्वारा अन्त कर दिया । ॥३७॥

दुःखं न मे स्यात्सुखमेव मे स्यादिति प्रवृत्तः सततं हि लोकः । न वेत्ति तच्चैव तथा यथा स्यात्प्राप्तं त्वयाद्यासुलभं यथावत् ॥३८॥ 

"मुझे दुःख न हो, मुझे सुख ही हो, इसके लिए जगत् सदा प्रयत्न करता है; किंतु वह नहीं जानता है कि वह (सुख) कैसे प्राप्त होता है, तुमने आज उस दुर्लभ (वस्तु, सुख) को तत्वतः प्राप्त कर लिया। "॥३८॥

इत्येवमादि स्थिरबुद्धिचित्तस्तथागतेनाभिहितो हिताय । स्तवेषु निन्दासु च निर्व्यपेक्षः कृतान्जलिर्वाक्यमुवाच नन्द: । ॥३९॥

तथागत ने स्थिर-बुद्धि और स्थिर-चित्त नन्द से उसके हित के लिये इस प्रकार बहुत कुछ कहा । तब स्तुति और निन्दा में निरपेक्ष (समान) रहनेवाले नन्द ने हाथ जोड़कर यह वचन कहा- ॥३९॥ 

अहो विशेषेण विशेषदर्शिन्त्वयानुकम्पा मयि दर्शितेयं । यत्कामपङ्के भगवन्निमग्नस्त्रातोऽस्मि संसारभयादकामः ॥४०॥

"हे विशेष-दर्शिन् , आपने विशेष रूप से मेरे ऊपर यह अनुकम्पा दर्शाई । हे भगवन् , मैं कामरूप कीचड़ में डूबा हुआ था, आपने भवचक्र के भय से मुझे बचा लिया, अब मैं (कामरूपी कीचड़) से मुक्त हो गया हूँ। ॥४०॥

भ्रात्रा त्वया श्रेयसि दैशिकेन पित्रा फलस्थेन तथैव मात्रा। हतोऽभविष्यं यदि न व्यमोक्ष्यं सार्थात्परिभ्रष्ट इवाकृतार्थः ॥४१॥ 

फल की इच्छा रखनेवाले पिता-स्वरूप तथा माता-स्वरूप, श्रेय के उपदेशक, मेरे (बड़े) भाई आपने यदि अर्थ (लक्ष्य) को प्राप्त किये बिना ही समूह से भटके हुए (यात्री) के समान मुझे न बचा लिया होता तो मैं नष्ट हो गया होता । ॥४१॥ 

शान्तस्य तुष्टस्य सुखो विवेको विज्ञाततत्तवस्य परीक्षकस्य । प्रहीणमानस्य च निर्मदस्य सुखं विरागत्वमसक्तबुद्धे ॥४२॥ 

शान्त संतुष्ट तत्वज्ञ और दार्शनिक को आसानी से विवेक होता है और मान-रहित मद-रहित तथा अनासक्त-बुद्धि को आसानी से वैराग्य होता है । ॥४२॥

अथो हि तत्त्वं परिगम्य सम्यङ्निर्धूय दोषानधिगभ्य शान्तिं । स्वं नाश्रमं संप्रति चिन्तयामि न तं जनं नाप्सरसो न देवान् ॥४३॥ 

तत्त्व को ठीक ठीक जानकर, दोषों को हटाकर और शान्ति को प्राप्त कर अब मुझे अपने (गृहस्थ-) आश्रम, उस सुन्दरी, अप्सराओं या देवताओं की चिन्ता न रही । ॥४३॥ 

इदं हि भुक्त्वा शुचि शामिक सुखं न मे मनः कांक्षति कामजं सुखं महार्हमध्यन्नमदैवताहृतं दिवौकसो भुक्तवतः सुधामिव ॥४४॥

इस पवित्र शान्ति-सुख को भोगकर अब मेरा मन काम-ज सुख की अभिलाषा नहीं करता है, जैसे अमृत खा करके देवता का चित्त दूसरे (देवेतर) प्राणियों के द्वारा खाये जानेवाले अन्न को, चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो, इच्छा नहीं करता । ॥४४॥

अहोऽन्धविज्ञाननिमीलितं जगत्पटान्तरे पश्यति नोत्तमं सुखं । सुधीरमध्यात्मसुखं व्यपास्य हि श्रमं तथा कामसुखार्थमृच्छति ॥४५॥

अहो ! अज्ञानान्धकार से मुंदी हुई आँखों वाला जगत् पटाच्छादित उत्तम सुख को नहीं देख रहा है; क्योंकि स्थायी अध्यात्म सुख को छोड़कर वह काम-ज सुख के लिए परिश्रम करता है । ॥४५॥ 

यथा हि रत्नाकरमेत्य दुर्मतिर्विंहाय रत्नान्यसतो मणीन्हरेत् । अपास्य संबोधिसुखं तथोत्तमं श्रमं व्रजेत्कामसुखोपलब्धये ॥४६॥

जैसे कोई दुर्बुध्दि रत्नों की खान में जाये और (उत्तम) रत्नों को छोड़कर असत् मणियों को ले आये, वैसे ही उत्तम बोधि-सुख को छोड़कर काम-सुख की प्राप्ति के लिए परिश्रम करे । ।।४६॥ 

अहो हि सत्वेष्वतिमैत्रचेतसस्तथागतस्यानुजिघृक्षुता परा। अपास्य यद्ध्यानसुखं मुने परं परस्य दुःखोपरमाय खिद्यसे ॥४७॥

अहो ! प्राणियों के प्रति तथागत का चित्त अत्यन्त मैत्रीपूर्ण है और उनके ऊपर तथागत अत्यन्त अनुग्रह करना चाहते हैं; इसीलिए तो, हे मुने, उत्तम ध्यान-सुख को छोड़कर आप दूसरों का दु:ख दूर करने के लिए श्रम कर रहे हैं। ॥४७॥

मया नु शक्यं प्रतिकर्तमद्य किं गुरौ हितैषिण्यनुकम्पके त्वयि । समुद्धृतो येन भवार्णवादहं महार्णवाच्चूर्णितनौरिवोर्मिभिः ॥४८॥ 

क्या मैं हितैषी और कारुणिक आप गुरुदेव का कुछ प्रति-उपकार कर सकता हूँ ? आपने मुझे भव सागर से ऐसे निकाला जैसे जिसकी नाव तरंगों से चूर हो रही हो उसको महासागर से निकाला जाय ।" ॥४८॥ 

ततो मुनिस्तस्य निशम्य हेतुमत्प्रहीणसर्वास्रवसूचकं वचः । इदं बभाषे वदतामनुत्तमो यदर्हति श्रीघन एव भाषितुं ॥४९।। 

तब उसके उस हेतुपूर्ण (युक्तियुक्त) वचन को, जिससे कि उसके सब आस्रवों (चित्त-मलों) का नष्ट होना सूचित हो रहा था, सुनकर वक्ता श्रेष्ठ मुनि ने यह वचन कहा जो कि श्रीघन (बुद्ध) ही कह सकते हैं'-॥४९॥

इदं कृतार्थः परमार्थविकृती स्वमेव धीमन्नभिधातुमर्हसि । अतीत्य कान्तारमवाप्तसाधनः सुदैशिकस्येव कृतं महावणिक् ॥५०॥

"है धीमन्, आप कृतार्थ, परमार्थ को जानने वाले तथा पुण्यात्मा ही ऐसा कह सकते हैं, जैसे मरुभूमि को पार करके धन प्राप्त करनेवाला महावणिक ही अपने पथ-प्रदर्शक के उपकार का बखान कर सकता है। ॥५०॥

अवैति बुद्ध नरदम्यसारथिं कृती यथार्हन्नुपशास्तमानसः । न दृष्टसत्योऽपि तथावबुध्यते पृथग्जनः किंबत बुद्धिमानपि ॥५१॥

शान्त-चित्त पुण्यात्मा, जीवन्मुक्त पुरुष, मनुष्य-रुपी घोड़ों के सारथि-स्वरूप बुद्ध को जितना समझता है उतना तो तत्त्वदर्शी भी नहीं समझ सकता है, फिर सांसारिक मनुष्य बुद्धिमान होकर भी कहाँ तक समझ सकेगा ? ॥५१॥

रजस्तमोभ्यां परिमुक्तचेतसर्तवैव चेयं सदृशी कृतज्ञता । रजःप्रकर्षेण जगत्यवस्थिते कृतज्ञभावो हि कृतज्ञ दुर्लभः ॥५२॥ 

यह ऐसी कृतज्ञता तो तुम्हारे ही अनुरूप है, तुम्हारा चित्त रजस् और तमस् (मल) से मुक्त जो है; क्योंकि हे कृतज्ञ, रजस् की अधिकता से व्याप्त जगत् में कृतज्ञता का भाव दुर्लभ है । ॥५२॥

सधर्म धर्मान्वयतो यतश्च ते
मयि प्रसादोऽधिगमे च कौशलं । 
अतोऽस्ति भूयस्त्वयि मे विवक्षितं 
नतो हि भक्तश्च नियोगमर्हसि ॥५३॥

हे समानधर्मा, धर्मान्वय के कारण मुझ में तुम्हारी श्रद्धा है और (लक्ष्य की) प्राप्ति में तुमने कौशल दिखलाया है; अतः मैं पुनः तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ, क्योंकि विनम्र भक्त तुम आदेश के पात्र हो । ॥५३॥ 

अवाप्तकार्योऽसि परां गति गतो न तेऽस्ति किंचित्करणीयमण्वपि अतःपरं सौम्य चरानुकम्पया विमोक्षयन कृच्छगतान्परानपि ॥५४॥

तुमने अपना कार्य पूरा कर लिया है, तुम परम गति प्राप्त कर चुके हो, तुम्हारे लिए अब अणुमात्र करने को भी शेष नहीं है; अब से, हे सौम्य, कष्ट में पड़े दूसरों को भी मुक्त करते हुए अनुकम्पापूर्वक विचरण करो । ॥५४॥

इहार्थमेवारभते नरोऽधमो विमध्यमस्तूभयलौकिकीं क्रियां । क्रियाममुत्रैव फलाय मध्यमो विशिष्टधर्मा पुनरप्रवृत्तये ॥५५॥

नीच मनुष्य इहलोक के लिए ही कार्यारम्भ करता है, विमध्यम (श्रेणीका) मनुष्य (इहलोक और परलोक) दोनों लोकं के लिए, मध्यम (श्रेणी का) मनुष्य परलोक में फल पाने के लिए ही और विशिष्ट धर्मवाला (उत्तम श्रेणी का) मनुष्य पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए कार्य करता है । ॥५५॥ 

इहोत्तमेभ्योऽपि मतः स तूत्तमो य उत्तमं धर्ममवाप्य नैष्ठिकं । अचिन्तयित्वात्मगतं परिश्रमं शमं परेभ्योऽप्युपदेष्टुमिच्छति ॥५६॥

इस संसार में वही मनुष्य उत्तम से भी उत्तम माना गया है जो कि उत्तम नैष्ठिक धर्म पाकर, अपने परिश्रम की चिन्ता न करता हुआ दूसरो को भी शम-धर्म (शान्ति) का उपदेश देना चाहता है । ॥५६॥ 

विहाय तस्मादिह कार्यमात्मनः कुरु स्थिरात्मन्परकार्यप्यथो । भ्रमत्सु सत्त्वेषु तमोवृतात्मसु श्रुतप्रदीपो निशि धार्यंतामयं । ॥५७॥

इसलिए इस संसार में, हे स्थिरात्मन्, अपना कार्य छोड़कर दूसरों का भी कार्य करो । रात्रि-काल में भटकते हुए तमोवृत जीवों के बीच इस ज्ञान-प्रदीप (धर्म-प्रदीप) को धारण करो । ॥५७॥ 

ब्रवीतु तावत्पुरि विस्मितो जनस्वयि स्थिते कुर्वति धर्मदेशनाः । अहोबताश्चर्यमिदं विमुक्तये करोति रागी यदयं कथामिति ॥५८॥

जब तुम नगर में धर्मोपदेश करते रहोगे तब लोग विस्मित होकर यों कहें-'अहो! यह आश्चर्य ! यह नन्द जो पहले कामासक्त था अब मुक्ति की बात बतला रहा है'। ॥५८॥

ध्रुवं हि संश्रुत्य तव स्थिरं मनो निवृत्तनानाविषयैर्मनोरथैः । वधूर्गुहे सापि तवानुकुर्वती करिष्यते स्त्रीषु विरागिणीः कथा:: ॥५९॥

नाना विषयों की इच्छाओं से मुक्त होकर तुम्हारा मन स्थिर हो गया है, यह सुनकर तुम्हारी वह पत्नी भी निश्चय ही घर में तुम्हारा ही अनुकरण करती हुई स्त्रियों के बीच वैराग्य की कथा कहेगी । ॥५९॥ 

त्वयि परमधृतौ निविष्टतत्त्वे भवनगता न हि रंस्यते ध्रुवं सा । मनसि शमदमात्मके विविक्ते मतिरिव कामसुखै: परीक्षकस्य ॥६०॥

क्योंकि तुम परम धैर्यवान् तत्व में प्रवेश कर चुके हो, इसलिए निश्चय ही वह घर में आनन्द न पायेगी; जैसे कि चित्त के शान्त, दान्त और विवेकशील (या एकान्त-सेवी) हो जाने पर दार्शनिक (योगी) की बुद्धि काम-सुख में रमण नहीं करती है । ॥६०॥

इत्यर्हतः परमकारुणिकस्य शास्तु

र्मुर्न्धा वचश्व चरणौ च समं गृहीत्वा ।

स्वस्थः प्रशान्तहृदयो विनिवृत्तकार्य:

पार्श्वान्मुने: प्रतिययौ विमदः करीव ॥६१॥ 

तब परम कारुणिक पूज्य शास्ता (बुद्ध) के वचन और चरणों को एक साथ ही शिरोधार्य करके स्वस्थ चित्त शान्त-हृदय और परिपूर्ण-कार्य नन्द मुनि (बुद्ध) के समीप से मद-मुक्त हाथी के समान चला गया ॥६१॥ 

भिक्षार्थ समये विवेश स पुरं दृष्टीर्जनस्याक्षिपन्
लाभालाभसुखासुखादिषु समः स्वस्थेन्द्रियो निःस्पृहः। निर्मोक्षाय चकार तत्र च कथां काले जनायार्थिने नैवोन्मार्गगतान्परान्परिभन्नात्मानमुत्कर्षयन् ।।६२।।

उसने भिक्षा के लिए समय पर नगर में प्रवेश किया, वह पुरवासियों की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था, वह हानि-लाभ, दुख-सुख आदि (द्वंद्वों) में समान शान्त-इन्द्रिय और इच्छा-रहित था । वहाँ उसने प्रार्थी लोगों को समय पर मोक्ष की कथा कही; किंतु उसने विपरीत-मार्ग पर चलने वाले दूसरे लोगो की न निन्दा की और न अपनी श्रेष्ठता ही प्रकट की । ॥६२॥

इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भा कृतिः श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात्कृता। यन्मोक्षात्कृतमन्यदत्र हि मया तत्काव्यधर्मात्कृतं
पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृद्यं कथं स्यादिति ।।६३॥ 


मोक्ष-धर्म की व्याख्या से परिपूर्ण यह कृति शान्ति प्रदान करने के लिए है, न कि आनन्द देने के लिए; अन्यमनस्क श्रोताओं को आकृष्ट करने के लिए यह (कृति) काव्य-शैली में रची गई है । इसमें मोक्ष-धर्म के अतिरिक्त मेरे द्वारा जो कुछ कहा गया है सो इसे काव्य-धर्म के अनुसार सरस बनाने के लिए ही, जैसे कि तिक्त (कटु) औषधि को पीने लायक बनाने के लिए उसमें मधु मिलाया जाता है । ॥६३॥ 

प्रायेणालोक्य लोकं विषयरतिपरं मोक्षात्प्रतिहतं
काव्यव्याजेन तत्त्वं कथितमिह मया मोक्षः परमिति । तदुबुध्दूवा शामिकं यत्तवहितमितो ग्राह्म' न ललितं पांसुभ्यो धातुजेभ्यो नियतमुपकरं चामीकरमिति ॥६४॥

ससार को प्रायः विषयानन्द में लीन तथा मोक्ष से विमुख देखकर मोक्ष को ही सब से ऊपर समझते हुए मैंने इसमें तत्व का उपदेश दिया है । ऐसा समझकर सावधानीपूर्वक इसमें से शान्ति-दायक वस्तु को ही, न कि आनन्द-दायक (ललित) वस्तु को, ग्रहण करना चाहिए; जैसे कि लोग धातु के कणों में से उपयोगी सुवर्ण (-कणों, को ही ग्रहण करते हैं। ॥६४॥

सौन्दरनन्दे महाकाव्य आज्ञाव्याकरणो नामाष्टादशः सर्गः।

सौन्दरनन्द महाकाव्य में आज्ञा-व्याकरण नामक अष्टादश (१८ वां) सर्ग समाप्त ।

आर्यसुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्यभदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिनः कृतिरियं ॥

 आर्य सुवर्णाक्षी-पुत्र साकेत-निवासी महाकवि महावाग्मी भिक्षु आचार्य भदंत अश्वघोष की यह कृति ।

Friday, March 19, 2021

सौन्दरनन्द-महाकाव्य, सप्तदश सर्ग, अमृत की प्राप्ति:

सौन्दरनन्द-महाकाव्य, सप्तदश सर्ग, 

अमृत की प्राप्ति: 

अथैवमादेशिततत्त्वमार्गो नन्दस्तदा प्राप्तविमोक्षमार्ग:।सर्वेण भावेन गुरौ प्रणम्य क्लेशप्रहाणाय वनं जगाम। ॥१॥

जब नन्द को इस प्रकार तत्त्व-मार्ग का उपदेश किया गया और जब उसने मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर लिया तब सर्वभाव से गुरु को प्रणाम कर वह जंगल चला गया। ॥१॥

तत्रावकाशं मृदुनीलशष्पं ददर्श शान्तं तरुषण्डवन्तं ।नि:शब्दया निम्नगयोपगूढं वैडूर्यनीलोदकया वहन्त्या। ॥ २॥

वहाँ कोमल और श्यामल दूब से आच्छादित तथा वृक्षों से युक्त एक शान्त स्थान देखा, जो वैदूर्य के समान नीले जल वाली, चुपचाप बहती नदी से आलिङ्गित हो रहा था। ॥२॥

स पादयोस्तत्र विधाय शौचं शुचौ शिवे श्रीमति वृक्षमूले।मोक्षाय बद्ध्वा व्यवसायकक्षां पर्यङ्कमङ्कावाहितं बबन्ध। ॥३॥

वहाँ वह अपने पाँवों को धोकर सुन्दर पवित्र और मङ्गलमय वृक्ष-मूल में मोक्ष-प्राप्ति का निश्चय कर और पर्यङ्क आसन बाँधकर बैठ गया। ॥३॥

ऋजुं समग्रं प्रणिधाय कायं काये स्मृति चाभिमुखी विधाय। सर्वेन्द्रियाण्यात्मनि संनिधाय स तत्र योगं प्रयतः प्रपेदे। ॥४॥

अपने समग्र (ऊपरी) शरीर को सीधा कर, स्मृति को शरीर में अभिमुखी (संलग्न, केन्द्रित) कर और सब इन्द्रियों को अपने में निरुद्ध कर, वह पवित्रात्म वहाँ योगारूढ़ हुआ। ॥४॥

तत: स तत्त्वं निखिलं चिकीर्षुर्मोक्षानुकूलांश्च विधींश्चिंकीर्षन् । ज्ञानेन लोक्येन शमेन चैव चचार चेत:परिकर्मभूमौ। ॥५॥

तब वह सम्पूर्ण तत्त्व को प्राप्त करने की इच्छा से और मोक्ष के अनुकूल उपायों को करने की इच्छा से ज्ञान और शान्ति के द्वारा चित्त की कर्म-भूमि में विचरण करने लगा। ॥५॥

संघाय धैर्यं प्रणिधाय वीर्य व्यपोह्य सक्ति परिगृह्य शक्ति।प्रशान्तचेता नियमस्थचेताः स्वस्थस्ततोऽभूद्विषयेष्वनास्थः। ॥६॥

धैर्य की रक्षा कर, उद्योग का सहारा लेकर आसक्ति का विनाश कर और शक्ति का संग्रह कर, वह शान्त-चित्त, संयत-चित्त और स्वस्थ (विकार-रहित) होकर विषयों से विरक्त हो गया। ॥६॥

आतप्तबुद्धेः प्रहितात्मनोऽपि स्वभ्यस्तभावादथ कामसंज्ञा। पर्याकुलं तस्य मनश्चकार प्रावृट्सु विद्युज्जलमागतेव। ॥७॥

यद्यपि उसकी बुद्धि प्रखर थी और उसका आत्म-निश्चय दृढ़ था, तो भी अतिशय अभ्यास के कारण काम-भावना (काम-वासना) ने उसके मन को व्याकुल कर दिया, जैसे वर्षा ऋतु में बिजली आकर पानी को क्षुब्ध कर देती है। ॥७॥

स पर्यवस्थानमवेत्य सद्यश्चिक्षेप तां धर्मविघातकर्त्री।प्रियामपि क्रोधपरीतचेता नारीमिवोद्वृत्तगुणां मनस्वी। ॥८॥

इस विपरीत मानसिक अवस्था को समझकर उसने धर्म में बाधा डालने वाली उस काम-भावना को दूर हटाया, जैसे मनस्वी व्यक्ति क्रुद्ध होकर सदाचार से च्युत हुई प्यारी स्त्री को भी त्याग देता है। ॥८॥

आरब्धवीर्यश्य मनःशमाय भूयस्तु तस्याकुशलो वितर्क:।व्याधिप्रणाशाय निविष्टबुद्धेरुपद्रवो घोर इवाजगाम। ॥९॥

मानसिक शान्ति के लिए उद्योग आरम्भ करने पर उसके मन में पुनः अकुशल वितर्क (बुरे विचार) का उदय हुआ, जैसे रोग-विनाश के लिए निश्चय किये हुए के ऊपर घोर संकट आवे। ॥९॥

स तद्विधाताय निमित्तमन्यद्योगानुकूलं कुशलं प्रपेदे।आर्तायनं क्षीणबलो बलस्थं निरस्यमानो बलिनारिणेव। ॥१०॥

उस (वितर्क) के विनाश के लिए उसने योग के अनुकूल दूसरे कुशल निमित्त का सहारा लिया, जैसे बलवान् शत्रु से पराजित होता हुआ मनुष्य अपनी शक्ति के क्षीण होने पर पीडितों को आश्रय देने वाले किसी शक्तिशाली मनुष्य की शरण में जाता है। ॥१०॥

पुरं विधायानुविधाय दण्डं मित्राणि संगृह्य रिपून्विगृह्य।राजा यथाप्नोति हि गामपूर्वी नीतिर्मुमुक्षोरपि सैव योगे। ॥ ११॥

राजा जैसे नगर का निर्माण कर, दण्ड का विधान कर, मित्रों का संग्रह कर और शत्रुओं का निग्रह कर अपूर्व भूमि को प्राप्त करता है उसी प्रकार मुक्ति चाहने वाला भी योग-विधि में उसी नीति का अवलम्बन करता है। ॥११॥

विमोक्षकामस्य हि योगिनोऽपि मनः पुरं ज्ञान विधिश्च दण्डः। गुणाश्च मित्राण्यरयश्च दोषा भूमिर्विमुक्तिर्यतते यदर्थ। ॥१२॥

मोक्ष चाहने वाले योगी का मन नगर है, ज्ञान-विधि दण्ड की व्यवस्था है, सद्गुण मित्र हैं, दोष शत्रु हैं और मुक्ति वह भूमि है जिसके लिए कि वह (योगी) यत्न करता है। ॥१२॥

स दुःखजालान्महतो मुमुक्षुर्विमोक्षमार्गाधिगमे विविक्षु:।पन्थानमार्यं परमं दिद्दत्तुः शमं ययौ किंचिदुपात्तचक्षुः॥१३॥

महा-दुःख-जाल से मुक्त होने की इच्छा से, मोक्ष-मार्ग में प्रविष्ट होने की इच्छा से और उत्तम आर्य-मार्ग का दर्शन करने की इच्छा से वह ज्ञान-लाभ करके शान्ति को प्राप्त हुआ। ॥१३॥

यः स्यान्निकेतस्तमसोऽनिकेत: श्रुत्वापि तत्त्वं स भवेत्प्रमत्ः। यस्मात्तु मोक्षाय स पात्रभूतस्तस्मान्मनः स्वात्मनि संजहार। ॥१४॥

जो गृह-विहीन भिक्षु अज्ञान का घर होगा वह तत्त्व को सुनकर भी असावधान ही रहेगा। किन्तु वह तो मोक्ष का पात्र हो गया था, इसलिए उसने अपने मन का अपने में ही संहार (निग्रह) कर लिया। ॥१४॥

संभारतः प्रत्ययतः स्वभावादास्वादतो दोषविशेषतश्च।अथात्मवान्नि: सरणात्मतश्च धर्मेषु चक्रे विधिवत्परीक्षां। ॥१५॥

तब मुक्ति-मार्ग में लगे हुए उस संयतात्म ने संभार प्रत्यय (कारण) स्वभाव आस्वाद और दोष-विशेष की दृष्टि से धर्मो (पदार्थों) की विधिवत् परीक्षा की। ॥१५॥

स रूपिणं कृत्स्नमरूपिणं च सारं दिद्दक्षुर्विचिकाय कायं।अथाशुचिं दुःखमनित्यमस्वं निरात्मकं चैव चिकाय कायं। ॥१६॥

उसने रूपवान् और अरूपवान् सम्पूर्ण सार देखने की इच्छा से शरीर का विश्लेषण किया और इसको अपवित्र, दुःखमय, अनित्य, शून्य और अनात्म समझा। ॥१६॥

अनित्यतस्तत्र हि शून्यतश्च निरात्मतो दुःखत एव चापि।मार्गप्रवेकेण स लौकिकेन क्लेशद्रुमं संचलयांचकार। ॥१७॥

शरीर को अनित्य, शून्य, अनात्म और दुःखमय देखकर उसने लौकिक उत्तम मार्ग द्वारा क्लेशों के वृक्ष को हिला दिया। ॥१७॥

यस्माद्भूत्वा भवतीह सर्वं भूत्वा च भूयो न भवत्यवश्यं। सहेतुकं च क्षयिहेतुमच्च तस्मादनित्यं जगदित्यविन्दत्। ॥१८॥  

क्योंकि इस संसार में अवश्य ही जो पहले नहीं था वह होता है और जो हुआ है वह फिर अभाव को प्राप्त होता है और सब कुछ हेतु-युक्त है और यह हेतु (कारण) विनाशवान् है, इसलिए उसने जगत को अनित्य समझा। ॥१८॥

यत: प्रसूतस्य च कर्मयोगः प्रसज्यते बन्धविघातहेतुः।दुःखप्रतीकारविधौ सुखाख्ये ततो भवं दुःखमिति विपश्यत् । ॥१९॥

क्योंकि जिसका जन्म होता है वह वध-बन्धन के हेतुरुप कर्मों के सम्पर्क में निरन्तर रहता है और क्योंकि दुःख-प्रतीकार के उपाय को ही सुख समझ लिया जाता है, इसलिए उसने संसार को दुःखमय देखा। ॥१९॥

यतश्च संस्कारगतं विविक्तं न कारकः कश्चन वेदको वा।सामग्रयत: संभवाति प्रवृत्ति: शून्यं ततो लोकमिमं ददर्श। ॥२०॥

क्योंकि व्यक्ति संस्कारों* का बना हुआ है, कर्ता या ज्ञाता कोई नहीं है और क्योंकि (हेतु-प्रत्ययों की) सामग्री से प्रवृत्ति होती है इसलिए उसने इस संसार को शून्य समझा। ॥२०॥ (*दो से अधिक चीजें मिलकर बनी चीज़ संस्कार हैं)

यस्मान्निरीहं जगदस्वतन्त्रं नैश्वर्यमेकः कुरुते क्रियासु। तत्तत्प्रतीत्य प्रभवन्ति भावा निरात्मकं तेन विवेद लोकं। ॥२१॥

क्योंकि संसार निरीह और परतन्त्र है, कार्यों का कोई ईश्वर नहीं है, और क्योंकि कारण के आश्रय से ही सब की उत्पत्ति होती है, इसलिए उसने संसार को अनात्म समझा। ॥२१॥

ततः स वातं व्यंजनादिवोष्णे काष्ठाश्रितं निर्मथनादिवाग्निं। अन्तःक्षितिस्थं खननादिवाम्भो लोकोत्तरं वर्त्मं दुरापमाप। ॥२२॥

जैसे कोई गर्मी में व्यंजन डुलाकर हवा निकाले, या काठ में रहने वाली अग्नि को रगड़कर निकाले या पृथ्वी के भीतर से पानी खोद निकाले, वैसे ही उसने (उद्योगपूर्वक) अलौकिक दुर्लभ मार्ग प्राप्त किया। ॥२२॥

सज्ज्ञानचापः मृतिवर्म बद्ध्वा विशुद्धशीलव्रतवाहनस्थः।क्लेशारिभिश्चित्तरणाजिरस्थैः सार्धं युयुत्सुर्विजयाय तस्थौ। ॥२३॥

सच्चा ज्ञानरूपी धनुष लेकर, स्मृतिरूपी कवच पहनकर और विशुद्ध शीलव्रतरूपी वाहन पर आरूढ़ होकर वह चित्त के रणाङ्गन में स्थित क्लेशरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा से विजय प्राप्त करने के लिए खड़ा हुआ। ॥२३॥

ततः स बोध्यङ्गशितात्तशस्त्रः सम्यक्प्रधानोत्तमदाहनस्थः।मार्गाङ्गमातङ्गवता बलेन शनैः शनैः क्लेशचमूं जगाहे। ॥ २४॥

तब (सात) बोधि-अङ्गरूपी तेज शस्त्र लेकर, सम्यक उद्योगरूपी वाहन पर सवार होकर, (आर्य अष्टाङ्गिक) मार्ग के (आठ) अङ्गरूपी हाथियों की सेना के साथ उसने धीरे धीरे क्लेशों की सेना में प्रवेश किया। ॥२४॥

स स्मृत्युपस्थानमयैः पृषत्कैः शत्रुन्विपर्यासमयान् क्षणेन।दुःखस्य हेतुंश्चतुरश्चतुर्भिः स्वैः स्वैः प्रचारायतनैर्ददार। ॥ २५॥

उसने चार स्मृति-उपस्थानरूपी तीरों से, जो अपने अपने क्षेत्र में चल रहे थे, दुःख के कारण-स्वरूप चार मिथ्याज्ञानरूपी शत्रुओं को क्षण भर में विदीर्ण कर डाला। ॥२५॥

आर्यैर्बलैः पञ्चभिरेव पञ्च चेत: खिलान्यप्रतिमैर्बभञ्ज। मिथ्याङ्गनागांश्च तथाङ्गनागैर्विनिर्दुधावाष्टभिरेव सोऽष्टौ। ॥२६॥

उसने अनुपम पाँच आर्य-बलों के द्वारा पाँच मानसिक खिलौ (किलों, बाधाओं) को तोड़ डाला और (आर्य मार्ग के) आठ अङ्ग-रूपी हाथियों द्वारा आठ मिथ्या अङ्गरूपी हाथियों को दूर भगाया। ॥२६॥

अथात्मदृष्टिं सकलां विधूय चतुर्षु सत्येष्वकरथंकथः सन्।विशुद्धशीलव्रतदृष्टधर्मा धर्मस्य पूर्वा फलभूमिमाप। ॥२७॥

तब आत्म-दृष्टि को सर्वथा उन्मूलित कर, चार सत्यों के विषय में संशय-रहित होकर और विशुद्ध शील-व्रत के द्वारा धर्म का दर्शन कर उसने धर्म की प्रथम फल-भूमि को प्राप्त किया। ॥२७॥

स दर्शनादार्यचतुष्टयस्य क्लैशैकदेशस्य च विप्रयोगात्।प्रत्यात्मिकाच्चापि विशेषलाभात्प्रत्यक्ष तो ज्ञानिसुखस्य चैव। ॥२८॥

उसने आर्य-चतुष्ट्य का दर्शन किया, क्लैशों के एक अंश का परित्याग किया, आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया और ज्ञानियों को होने वाले सुख का साक्षात्कार किया। ॥२८॥

दार्ढ्यात्प्रसादस्य धृते: स्थिरत्वात्सत्येष्वसंमूढतया चतुर्षु।शीलस्य चाच्छिद्रतयोत्तमस्य निःसंशयो धर्मविधौ बभूव। ॥२९॥

उसकी श्रद्धा दृढ़ हुई, धृति स्थिर हुई, चार सत्यों के बारे में उसका अज्ञान दूर हुआ, उसका उत्तम शील छिद्र-रहित हुआ; अत: वह धर्मा-चरण में संशय-रहित हुआ। ॥२९॥

कुदृष्टिजालेन स विप्रयुक्तो लोकं तथाभूतमवेक्षमाणः।ज्ञानाश्रयां प्रीतिमुपाजगाम भूयः प्रसादं च गुरावियाय। ॥३०॥

कुदृष्टियों के जाल से मुक्त होकर, लोक को वास्तविक अवस्था में देखता हुआ वह ज्ञान के आश्रय से होने वाली प्रीति (सुख) को प्राप्त हुआ और गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़ गई। ॥३०॥

यो हि प्रवृत्ति नियतामवैति नैवान्यहेतोरिह नाप्यहेतोः।प्रतीत्य तत्तत्समवैति तत्तत्स नैष्ठिकं पश्यति धर्ममार्यं। ॥३१॥ 

प्रवृत्ति का नियमन (व्यवस्था) किसी दूसरे (मिथ्या) कारण से या विना कारण के ही नहीं होता, कितु (उचित) कारण के आश्रय से ही सब कुछ होता है, ऐसा जो समझता है वह नैष्ठिक आर्य धर्म को देखता है। ॥३१॥

शान्तं शिवं निर्जरसं विरागं निःश्रेयसं पश्यति यश्च धर्मं।तस्योपदष्टारमथार्यवर्यं स प्रेक्षते बुद्धमवाप्तचक्षु:। ॥३२॥

जो शान्त, मङ्गलमय, जरा-रहित, राग-रहित और परम कल्याण-कारी धर्म को तथा उसके उपदेश करने वाले आर्य-श्रेष्ठ को देखता है, वह ज्ञान प्राप्त करता है और बुद्ध को देखता है। ॥३२॥

यथोपदेशेन शिवेन मुक्तो रोगादरोगो भिषजं कृतज्ञः।अनुस्मरन्पश्यति चित्तदृष्ट्या मैत्र्या च शास्त्रज्ञतया च तुष्टः। ॥३३॥

जिस प्रकार (वैद्य के) सत्परामर्श से रोग-मुक्त हुआ स्वस्थ मनुष्य वैद्य के प्रति कृतज्ञ होकर उसको स्मरण करता हुआ अपनी चित्त-दृष्टि से देखता है और उसकी मैत्री एवं शास्त्र-ज्ञान से सतुष्ट होता है,। ॥३३॥

आर्येण मार्गेण तथैव मुक्तस्तथागतं तत्वविदार्यतत्वः।अनुस्मरन्पश्यति कायसाक्षी मैत्र्या च सर्वज्ञतया च तुष्टः। ॥३४॥

उसी प्रकार आर्य मार्ग से चलकर मुक्त हुआ तत्वज्ञानी आर्य-तत्व वाला काय-साक्षी (काया से ही परम सत्य का साक्षात्कार करने वाला) तथागत को स्मरण करता हुआ (अपनी चित्त-दृष्टि से) देखता है और उनकी मैत्री एवं सर्वज्ञता से संतुष्ट होता है। ॥३४॥

स नाशकैर्दृर्ष्टिगतैर्विमुक्तः पर्यन्तमालोक्य पुनर्भवस्य। भक्त्वा घृणां क्लेशविजृम्भितेषु मृत्योर्न तत्रास न दुर्गतिभ्य:। ॥३५॥

विनाशक विचारों (धारणाओं) से मुक्त होकर, पुनर्जन्म का अन्त देखकर और क्लशों से घृणा करके वह मृत्यु या दुर्गति से भय-भीत नहीं हुआ। ॥३५॥

त्वक्स्न्नायुमेदोरुधिरास्थिमांसकेशादिनामेध्यगणेन पूर्णं।ततः स कायं समवेक्षमाणः सार विचित्त्याण्वपि नोपलेभे। ॥३६॥

उसने त्वचा, स्नायु, चर्बी, रुधिर, हड्डि, मांस, केश आदि अपवित्र वस्तुओं से भरे हुए शरीर को अच्छी तरह देखा और चिन्तन करने पर थोड़ा सा भी सार उसमें नहीं पाया। ॥३६॥

स कामरागप्रतिघौ स्थिरात्मा तेनैव योगेन तनू चकार।कृत्वा महोरस्कतनुस्तनू तौ प्राप द्वितीयं फलमार्यधर्मे। ॥३७॥

उस स्थिरात्म ने योग द्वारा काम-राग (काम-इच्छा) और प्रतिघ (प्रतिहिंसा) को क्षीण किया और इन दोनों को क्षीण करके उस विशाल वक्षस्थल वाले ने आर्य धर्म का दूसरा फल (सकृदागामि-फल) पाया। ॥३७॥

स लोभचापं परिकल्पवाणं रागं महावैरिणमल्पशेषं।कायस्वभावाधिगतैर्बिभेद योगायुधास्त्रैरशुभापृषत्कै:। ॥३८॥

उसने लोभरूपी धनुष वाले सङ्कल्परूपी तीर वाले अल्पावशिष्ट राग नामक महाशत्रु को शरीर के स्वभाव (पर चिन्तन करने) से प्राप्त हुए अशुभ-भावना रूपी तीरों तथा यौगिक अस्त्र-शस्त्रों से विदीर्ण किया। ॥३८॥

द्वेषायुधं क्रांधविकीर्णबाणं व्यापादमन्तः प्रसवं सपत्नं।मैत्रीपृषत्कैर्धृतितूणसंस्थैः क्षमाधनुर्ज्याविसृतैर्जधान। ॥३९॥

द्वेष रूपी शस्र वाले, क्रोध रूपी बिखरे बाण वाले व्यापाद (द्रोह, प्रतिहिंसा) नामक भीतरी शत्रु को धृति रूपी तरकस में रहने वाले तथा क्षमारूपी धनुष की प्रत्यञ्चा से छूटने वाले मैत्रीरूपी तीरों से मार डाला। ॥३९॥

मूलान्यथ त्रीण्यशुभस्य वीरस्त्रिभिर्विमोक्षायतनैश्चकर्त।चमूमुखस्थान्धृतकार्मु कांस्त्रीनरीनिवारिस्त्रिभिरायसाग्रै:। ॥४०॥

उस वीर ने तीन अकुशल-मूलों (लोभ द्वैष मोह) को तीन विमोक्ष-आयतनों (विमोक्ष-मुखों) से काट डाला, जैसे कोई शत्रु सेना के अग्रभाग में धनुष लेकर खड़े हुए तीन शत्रुओं को तीन लोहाग्र तीरों से काट डाले। ॥४०॥

स कामधातोः समतिक्रमाय पार्ष्णिग्रहांस्तानभिभूय शत्रून्। योगादनागामिफलं प्रपद्य द्वारीव निर्वाणपरस्य तस्थौ। ॥४१॥

काम-धातु का अतिक्रमण करने के लिए पीछे से आक्रमण करने वाले उन शत्रुओं को जीतकर, योग द्वारा अनागामि-फल प्राप्त कर, वह मानो निर्वाण-नगर के (प्रवेश-) द्वार पर खड़ा हुआ। ॥४१॥

कामैर्विविक्तं मलिनैश्च धर्मैर्वितर्कवच्चापि विचारवच्च।विवेकर्ज प्रीतिसुखोपपन्नं ध्यानं ततः स प्रथमं प्रपेदे। ॥ ४२॥

तब वह कामों (काम-वासनाओं) से रहित, अकुशल धर्मों से रहित, वितर्क-युक्त, विचार-युक्त, वितर्क से उत्पन्न तथा प्रीति व सुख से युक्त प्रथम ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥४२॥

कामाग्निदाहेन स विप्रमुक्तो ह्वादं परं ध्यानसुखादवाप।सुखं विगाह्याप्स्विव घर्मखिन्नः प्राप्येव चार्थे विपुलं दरिद्रः। ॥४३॥

कामाग्नि के दाह से मुक्त होकर उसने ध्यान-सुख से (होनेवाला) परम-आनन्द प्राप्त किया, जैसे कि गर्मी से पीडित मनुष्य जल में सुख-पूर्वक अवगाहन करके या दरिद्र मनुष्य विपुल सम्पत्ति पाकर अत्यन्त आनन्दित होता है। ॥४३॥

तत्रापि तद्धर्मगतान्वितर्कान् गुणागुणे च प्रसृतान्विचारान्। बुद्ध्वा मनःक्षोभकरानशान्तांस्तद्विप्रयोगाय मतिं चकार। ॥४४॥

वहाँ भी उन (विविध) धर्मों के सम्बन्ध में होने वाले वितर्क और उनके गुणावगुणों के सम्बन्ध में उठे हुए विचार मन को क्षुब्ध करने वाले और अशान्ति-प्रद हैं, ऐसा समझकर उसने उनका नाश करने के लिए निश्चय किया। ॥४४॥

क्षोभं भ्रकुर्वन्ति यथोर्मयो हि धीरप्रसन्नाम्बुवहस्य सिन्धो:। एकाग्रभूतस्य तथोर्मिभूताश्चित्ताम्भसः क्षोभकरा वितर्क:। ॥४५॥

जिस प्रकार शान्त और निर्मल जल वाली नदि तरंगों (के उठने) से क्षुब्ध होती है, उसी प्रकार एकाग्रता को प्राप्त चित्तरूपी-जल वितर्क रूपी तरंगों (के उठने) से क्षुब्ध होता है। ॥४५॥

खिन्नस्य सुप्तस्य च निर्वृतस्य बाधं यथा संजनयन्ति शब्दा:। अध्यात्ममैकाग्रयमुपागतस्य भवन्ति बाधाय तथा वितर्का:। ॥४६॥

जिस प्रकार थककर सुखपूर्वक सोये हुए मनुष्य को शब्दों से बाधा होती है, उसी प्रकार जिसने आध्यात्मिक (भीतरी) एकाग्रता प्राप्त कर ली है उसको वितर्को से बाधा होती है। ॥४६॥

अथावितर्कं क्रमशोऽविचारमेकाग्रभावान्मनसः प्रसन्नं।समाधिजं प्रीतिसुखं द्वितीयं ध्यानं तदाध्यात्मशिवं स दध्यौ। ॥४७॥

तब वह क्रमशः वितर्क-रहित, विचार-रहित, मानसिक एकाग्रता के कारण शान्त, समाधि से उत्पन्न, प्रीति व सुख से युक्त, तथा आध्यात्मिक कल्याण वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥४७॥

तद्ध्यानमागम्य च चित्तमौनं लेभे परां प्रीतिमलब्धपूर्वी।प्रीतौ तु तत्रापि स दोषदर्शी यथा वितर्केष्वभवत्तथैव। ॥४८॥

तब मानसिक मौन वाले उस ध्यान (अवस्था) में आकर उसने उत्तम और अपूर्व प्रीति पाई, किन्तु उसने उस प्रीति में भी दोष देखा जैसे कि वितर्कों में (दोष) देखा था। ॥४८॥

प्रीतिः परा वस्तुनि यत्र यस्य विपर्ययात्तस्य हि तत्र दुःखं।प्रीतावतः प्रेक्ष्य स तत्र दोषान्प्रीतिक्षये योगमुपारुरोह। ॥४९॥

क्योंकि जिसको जिस किसी वस्तु में बड़ी प्रीति होती है उसको उस (प्रीय) वस्तु के विपर्यय (विनाश, विपरीत) होने पर उसमें दुःख होता है; इसलिए प्रीति में दोष देखकर प्रीति का विनाश करने के लिए वह योगारूढ़ हुआ। ॥४९॥

प्रीतेर्विरागात्सुखमार्यजुष्टं कारयेन विन्दन्नथ संप्रजानन् ।उपेक्षक: स स्मृतिमान्व्यहार्षीदुध्यानं तृतीयं प्रतिलभ्य धीरः। ॥५०॥

प्रीति से वैराग्य होने पर, शरीर से आर्य-जन-सेवित (आर्योंचित) सुख का अनुभव करता हुआ, ज्ञान (होश), उपेक्षा और स्मृति, (सावधानी, जागरूकता) से युक्त हो, तृतीय ध्यान को प्राप्त हो, वह धैर्यपूर्वक विहार करने लगा। ॥५०॥

यस्मात्परं तत्र सुखं सुखेभ्यस्ततः परं नास्ति सुखप्रवृत्ति:। तस्माद्बभाषे शुभकृत्स्न्नभूमिं परापरज्ञ: परमेति मैत्र्या। ॥५१॥

क्योंकि उस अवस्था में होने वाला सुख सब सुखों से उत्तम है और उसके बाद सुख का प्रवाह (सातत्य) नहीं रहता है, इसलिए उस परापरज्ञ (उत्तम और निकृष्ट अवस्था को जानने वाले) ने मैत्री के कारण उस उत्तम अवस्था को शुभकृत्स्न (-देवों की) भूमि समझा। ॥५१ ॥

ध्यानेऽपि तत्राथ ददर्श दोषं मेने परं शान्तनिञ्जमेव।आभोगतोऽपीञ्जयति स्म तश्य चित्तं प्रवृत्तं सुखमित्यजस्रं। ॥५२॥

उसने उस (देवों की भूमि) ध्यान में भी दोष देखा और उत्तम अवस्था को शान्त और निर्विकार समझा। परिपूर्णं होने पर भी वह अनुभूत (प्राप्त) सुख उसके चित्त में विकार (अस्थिरता) पैंदा करने लगा। ॥५२॥

यत्रेञ्जितं स्पन्दितमस्ति तत्र यत्रास्ति च स्पन्दितमस्ति दुःखं। यस्मादतस्तत्सुखमिञ्जकत्वात्प्रशान्तिकामा यतयस्त्यजन्ति। ॥५३॥

क्योंकि जहाँ विकार (अस्थिरता) है वहाँ कम्पन है और जहाँ कम्पन है वहाँ दुःख है, इसलिए शान्ति चाहने वाले यति (साधक) उस सुख को विकारवान् समझकर छोड़ देते हैं। ॥५३॥

अथ प्रहाणात्सुखदुःखयोश्च मनोविकारस्य च पूर्वमेव।दध्यावुपेक्षास्मृतिमद्विशुद्धं ध्यानं तथा दुःखसुखं चतुर्थे। ॥ ५४॥

तब सुख-दुःख का परित्याग कर और मनोविकार (सौमनस्य-दौर्मनस्य) का तो पहले ही परित्याग करके वह दुःख-सुख से रहित उपेक्षा व स्मृति से युक्त विशुद्ध चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हुआ। ॥५४॥

यस्मात्तु तस्मिन्न सुखं न दुःखं ज्ञानं च तत्रास्ति तदर्थचारि। तस्मादुपेक्षास्मृतिपारिशुद्धिर्निरुच्यते ध्यानविधौ चतुर्थे। ॥५५॥

क्योंकि उस (ध्यान) में न सुख है, न दुःख है और है उसके लक्ष्य का साधक ज्ञान; इसलिए चतुर्थ ध्यान- विधि में स्मृति और उपेक्षा के द्वारा शुद्धि होती है, ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जाता है। ॥५५॥

ध्यानं स निश्रित्य ततश्चतुर्थमर्हत्वलाभाय मतिं चकार।संधाय मैत्रं बलवन्तमार्यं राजेव देशानजितान् जिगीषु:। ॥५६॥

तब चतुर्थ ध्यान का आश्रय लेकर उसने अर्हत्व (जीवन्मुक्ति) प्राप्त करने का निश्चय किया, जैसे राजा बलवान् आर्य मित्र से सन्धि करके, नही जीते हुए देशों को जीतना चाहता है। ॥५६॥

चिच्छेद कात्स्नर्येन ततः स पञ्च प्रज्ञासिना भावनयेरितेन। ऊर्ध्वंगमान्युत्तमबन्धनानि संयोजनान्युत्तमबन्धनानि। ॥५७॥

तब उसने भावना द्वारा सञ्चालित प्रज्ञारूपी तलवार से कल्याण के बाधक पांच ऊर्ध्वगामी (ऊर्ध्वभागीय) तथा कल्याण के बाधक पाँच (अवरभागीय) संयोजनों (बन्धनों) को पूरा पूरा काट डाला। ॥५७॥

बोध्यङ्गनागैरपि सप्तभिः स सप्तैव चित्तानुशयान्ममर्द।द्वीपानिवोपस्थितविप्रणाशान कालो प्रहै: सप्तभिरेव सप्त। ॥५८॥

उसने सात बोधि-अङ्गरूपी हाथियों द्वारा सात चित्त-अनुशयों (चित्त-मलों) को रगड़ दिया, जैसे काल सात ग्रहों के द्वारा उपस्थित-विनाश (जिनका विनाश समीप आ गया हो ऐसे) सात द्वीपो को नष्ट कर देता है। ॥५८॥

अग्निद्रुमाज्याम्बुषु या हि वृत्तिः कबन्धवाय्वग्निदिवाकराणां। दोषेषु तां वृत्तिमियाय नन्दो निर्वापणोत्पाटनदाहशोषै:। ॥५९॥

अग्नि, वृक्ष, घी और पानी के प्रति (क्रमशः) जल, वायु, अग्नि और सूर्य का जो आचरण (कार्य) होता है दोषों के प्रति नन्द ने प्रशमन, उन्मूलन, दहन और शोषण द्वारा वही आचरण किया। ॥५९॥

इति त्रिवेगं त्रिझषं त्रिवीचमेकाम्मसं पञ्चरयं द्विक्कूलं।द्विग्राहमष्टाङ्गवता प्लवेन दुःखार्णवं दुस्तरमुत्ततार। ॥६० ॥

इस प्रकार तीन वेग वाले, तीन मछलियों वाले, तीन तरंगों वाले, एक जल वाले, पाँच वेग वाले, दो तीर वाले और दो ग्राह वाले दुस्तर दुःख-सागर को आठ अङ्गवाली नांव से पार किया। ॥६०॥

अर्हत्वमासाद्य स सत्क्रियार्हो निरुत्सुको निष्प्रण्यो निराशः। वीभीर्विंशुग्वीतमदो विराग: स एव धृत्यान्य इवाबभासे। ॥६१॥

अर्हत्व प्राप्त कर वह पूज्य उत्सुकता, स्नेह, आशा, भय, शोक, मद और राग से रहित होकर धैर्यं के कारण दूसरा-जैसा दिखाई पड़ा। ॥६१।।

भ्रातुश्च शास्तुश्च तयानुशिष्ट्या नन्दस्ततः स्वेन च विक्रमेण। प्रशान्तचेताः परिपूर्णकार्यो वाणीमिमामत्मगतां जगाद। ॥६२॥

भाई और उपदेशक के उस उपदेश से तथा अपने पराक्रम से जब उसका चित्त शान्त और कार्य पुरा हो गया तब अपने ही मन में उसने यो कहाः। ॥६२॥

नमोऽस्तु तस्मै सुगताय येन हितैषिणा मे करुणात्मकेन।बहूनि दुःखान्यपवर्तितानि सुखानि भूयांस्युपसंहृतानि। ॥६३॥

"उन सुगत (बुद्ध) को प्रणाम करता हूँ, जिन हितैषी करुणात्मक ने मेरे अनेक दुःख दूर किये और असीम सुख दिये।" ॥६३॥

अहं ह्यनार्येण शरीरजेन दुःखात्मके वर्त्मनि कृष्यमाणः।निवर्तितस्तद्वचनाङकुशेन दर्पान्वितो नाग इवाङ्कुशेन। ॥६४॥

अनार्य शरीरज (काम) द्वारा मैं दुःखात्मक मार्ग में घसीटा जा रहा था; किंतु उनके वचनरूपी अङ्कुश द्वारा मैं ऐसे लौटा लिया गया जैसे अङ्कुश द्वारा मत्त हाथी लौटाया जाता है। ॥६४॥

तस्याज्ञया कारुणकस्य शास्तुर्हृदिस्थमुत्पाट्य हि रागशल्यं। अद्यैव तावत्सुमहत्सुखं मे सर्वेक्षये किंबत निर्वृतस्य। ॥६५॥

उन कारुणिक शास्ता की आज्ञा से हृदय में रहने वाले रागरूपी शल्य को निकालकर मैं आज ही ऐसा महान् सुख अनुभव कर रहा हूँ, फिर सब (पदार्थों) को क्षय होने के बाद निर्वाण होने पर क्या कहना ? ॥६५॥

निर्वाप्य कामाग्निमहं हि दीप्तं धृत्यम्बुना पावकमम्बुनेव।ह्रादं परं सांप्रतमागतोऽस्मि शीतं हृदं धर्म इवावतीर्ण:। ॥ ६६॥

जैसे जल से अग्नि को शान्त करते हैं वैसे ही धैर्यरूपी जल से प्रज्वलित कामाग्नि को शान्त करके मैं सम्प्रति, गर्मी में शीतल सरोवर में उतरे हुए के समान, अत्यन्त आल्हादित हो रहा हूं। ॥६६॥

न मे प्रीयं किंचन नाप्रियं मे न मेऽनुरोधोऽस्ति कुत्तो विरोध:। तयोरभावात्सुखिताऽस्मि सद्या हिमातपाभ्यामिव विप्रमुक्त:। ॥६७॥

मुझे न कुछ प्रिय है न अप्रिय, न अनुरोध (चाह) न विरोध इन दोनों के अभाव से मैं अब, सर्दी-गर्मी (के प्रभाव) से मुक्त हुए के समान, सुखी हूँ। ॥६७॥

महाभयात्क्षेममिवोपलभ्य महावरोधादिव विप्रमोक्षं।महार्णवात्पारमिवाप्लवः सन्भीमान्धकारादिव च प्रकाशं। ॥६८॥

महा-विपत्ति से कुशल-क्षेम प्राप्त करने वाले के समान महा-बन्धन से मुक्ति पाने वाले के समान, नाव के बिना ही महासागर से पार पाने-वाले के समान, भीषण अन्धकार से (निकलकर) प्रकाश पाने वाले के समान, ॥६८॥

रोगादिवारोग्यमसह्यरूपादृणादिवानृण्यमनन्तसंख्यात्।द्विषत्सकाशादिव चापवानं दुर्भिक्षयोगाच्च यथा सुभिक्षं। ॥६९॥

असह्य रोग से आरोग्य पाने वाले के समान, अ्नन्त-राशि ऋण से ऊऋण होने वाले के समान, शत्रु के समीप से भाग निकलने वाले के समान और अकाल से सुकाल में आने वाले के समान, ॥६९॥

तद्वत्परां शान्तिमुपागतोऽहं यस्यानुभावेन विनायकस्य।करोमि भूयः पुनरुक्तभस्मै नमो नमोऽर्हाय तथागताय। ॥७०॥

मैं जिन विनायक (बुद्ध) की कृपा से परम शांति को प्राप्त हुआ हूँ उन पूज्य तथागत को बार बार प्रणाम करता हूँ। ॥७०॥

येनाहं गिरिमुपनीय रुक्मशृङ्गं स्वर्ग च प्लवगवधूनिदर्शनेन। कामात्मा त्रिदिवचरीभिरङ्गनाभि-निष्कृष्टो युवतिमये कलौ निमग्न:। ॥७१॥

जिन्होंने मुझे कामासक्त तथा युवतिमय पाप में डूबे हुए को स्वर्ण-शिखर पर्वत पर और स्वर्ग में ले जाकर शाखामृगी के दृष्टान्त द्वारा तथा दिव्याङ्गनाओं (अप्सराओं) के द्वारा बाहर निकाला, ॥७१॥

तस्माच्च व्यसनपरादनर्थपङ्का-दुत्कृष्य क्रमशिथिलः करीव पङ्कात्शान्तेऽस्मिन्दिरजसि विज्वरे विशाके सद्धर्मे वितमसि नैंष्ठिके विमुक्तः। ॥७२॥

और जिन्होंने मुझे उस विपत्ति-प्रद अनर्थरूपी पङ्क से, जैसे थके हुए हाथी को कीच़ड से बाहर निकाल कर इस शांत, निर्मल, ताप-रहित, शोक-रहित, तम-रहित नैष्ठक सद्धर्म में छोड़ (रख) दिया, ॥७२॥

तं वन्द परमनुकम्पकं महर्षिमूर्ध्नाहं प्रकृतिगुणज्ञमाशयज्ञं।संबुद्धं दशबलिनं भिषक्प्रधानं त्रातारं पुनरपि चास्मि संनतस्तं। ॥७३॥

उन (प्राणियों के) प्रकृति गुण और आशय को जानने वाले परमदयालु महर्षि बुद्ध, दश-बल-धारी श्रेष्ठ चिकित्सक और त्राता को शिर नवाकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें फिर से प्रणाम करता हूं। ॥७३॥

महाकाव्ये सौन्दरनन्दऽसृताधिगमो नाम सप्तदशः सर्गः ।

सौन्दरनन्द महाकाव्य में "अमृत-प्राप्ति" नामक सप्तदश (१७ वा) सर्ग समाप्त ।




Tuesday, March 16, 2021

कलहविवाद-सुत्तं-11-सुत्तनिपात

कलहविवाद-सुत्तं-11-सुत्तनिपात:

८६२. “कलह आणि विवाद, परिदेव, शोक आणि मत्सर हे कोठून उत्पन्न होतात? आणि अहंकार, अतिमान, आणि चाहाड्या कोठून उत्पन्न होतात हें कृपा करून सांग.” (१)

८६३. “कलह आणि विवाद, परिदेव, शोक आणि मत्सर, अहंकार, अतिमान आणि चाहाड्या प्रिय वस्तूंपासून उत्पन्न होतात. मात्सर्यापासून कलह आणि विवाद उत्पन्न होतात, आणि वादविवादांत पडणार्‍या मनुष्यांमध्यें चाहाड्या उद्‍भवतात.” (२)

८६४. “या जगांत वस्तू प्रिय कशामुळें उत्पन्न होतात? जे जगांत लोभ वावरतात ते कशामुळें उत्पन्न होतात? आणि माणसांच्या पुनर्भवाला ज्या कारणीभूत होतात त्या आशा आणि निष्ठा कशामुळें उत्पन्न होतात?” (३)

८६५ “या जगांत वस्तू छंदामुळें प्रिय होतात. जगांत वावरणारे लोभ छंदामुळें होतात; माणसांच्या पुनर्भवाला ज्या कारणीभूत होतात त्या आशा आणि निष्ठा (फलप्राप्ति) यामुळें होतात.” (४)

८६६. “जगांत छंद कशामुळें (उत्पन्न) होतो? ठाम मतें कोठून उत्पन्न होतात? आणि क्रोध, लबाडी, कुशंका किंवा श्रमणानें (बुद्धानें) दाखवून दिलेले असे दुसरे (दोष) कशामुळें (उत्पन्न) होतात?” (५)

८६७ “ज्याला जगांत सुख आणि दु:ख म्हणतात त्यापासून छंद उत्पन्न होतो. (मनाचे विषय बनलेल्या) रूपांमधील उत्पाद आणि व्यय पाहून प्राणी जगांत ठाम मतें बनवतो. (६)

८६८ क्रोध, लबाडी आणि कुशंका या गोष्टीही याच द्वयामुळें (सुखदु:खामुळें) उत्पन्न होतात. श्रमणानें ज्ञान मिळवून हे (कुशलाकुशल) धर्म दाखवून दिले आहेत. म्हणून संशयग्रस्त माणसानें त्याचा धर्ममार्ग शिकावा.” (७)

८६९ “सुख आणि दु:ख हीं कशामुळें (उत्पन्न) होतात? कोणत्या गोष्टीचा नाश झाल्यानें हीं होत (उत्पन्न) नाहींत? आणि (ह्यांचाच) लाभ आणि हानि कशामुळें होतात हेंही मला सांग.” (८)

८७० “स्पर्शामुळें सुख आणि दु:ख हीं (उत्पन्न) होतात; स्पर्श नसला तर हीं होत नाहींत; (ह्यांचा) लाभ आणि (ह्यांची) हानिही याचमुळें होते. असें मी म्हणतों.” (९)

८७१ “जगांत स्पर्श कशामुळें (उत्पन्न) होतो? परिग्रह कशामुळें उत्पन्न होतात? कशाचा नाश झाला असतां ममत्व राहत नाहीं? आणि कशाच्या नाशानें स्पर्श उत्पन्न होत नाहीं?” (१०)

८७२ “नाम आणि रूप (मन-शरीर) यांवर अवलंबून स्पर्श उत्पन्न होतात; इच्छेमुळें परिग्रह (संग्रहण) उत्पन्न होतात. इच्छा नष्ट झाली तर ममत्व राहत नाहीं, आणि रूप-(विचार) नष्ट झाल्यानें स्पर्श उत्पन्न होत नाहीं. (११)

८७३ “कोणत्या गुणांनीं युक्त झाल्यानें रूप-विचार नष्ट होतो? सुख आणि दु:ख कशामुळें नष्ट होतें? हीं कशीं नष्ट होतात, हे मला सांग. तें जाणण्याची माझी इच्छा आहे.” (१२)

८७४ “(प्राकृतिक) संज्ञा नसलेला, किंवा ज्याची संज्ञा नष्ट झाली आहे असा (वेडा किंवा भ्रमिष्ट) नसणारा, (निरोध-समाधि प्राप्त झाल्यामुळें किंवा असंज्ञी-सत्त्व बनल्यामुळें) संज्ञाविहीन झाला आहे असेंही नसणारा, किंवा (अरूपध्यान प्राप्त झाल्यामुळें) रूपें ओलांडलीं आहेत असें ही नसणारा- अशा गुणांनीं जो युक्त, त्याचा रूपविचार नष्ट होतो. कारण ज्याला प्रपंच म्हणतात तो ह्या संज्ञेमुळें होतो१?” (१ टीकाकाराला अनुसरून ह्या कूटगाथेचा अर्थ दिलेला आहे.) (१३)

८७५ “जें आम्हीं विचारलें, तें तूं आम्हांस सांगितलेंस. आता तुला आम्ही आणखी एक विचारतों तें कृपा करून सांग. या जगांत जे पंडित आहेत, ते (रूपविचाराचा नाश) हीच अग्र आत्मशुद्धि म्हणतात काय? किंवा याहून अन्य शुद्धि समजात?” (१४)

८७६. “या जगांत कित्येक पंडित हीच अग्र आत्मशुद्धि असें म्हणतात. पण दुसरे कांहीं आपणाला अनुपादिशेष (निरोधांत) कुशल समजणारे आपला उच्छेदवाद अग्र आहे असें सांगतात. (१५)

८७७. पण हे सर्व उपनिश्रित (आश्रित) आहेत असें जाणून मुनि यांच्या आश्रयांची मीमांसा करून ज्ञान मिळवून मुक्त होतो, आणि वादांत पडत नाहीं; आणि तो सुज्ञ (पुढें) कोणच्याही भवांत जन्म घेत नाहीं. (१६)

कलहविवादसुत्त समाप्त. .

Sunday, February 7, 2021

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, भाग, २

क्लेशप्रहाणाय च निश्चितेन कालोऽभ्युपायश्च परीक्षितव्यः । योगोऽप्यकाले ह्यनुपायतश्च भवत्यनर्थाय न तद्गुणाय ॥४९॥

जिसने क्लेशों (राग-द्वेष आदि) का नाश करने के लिए निश्चय किया है उसको काल और उपाय की परीक्षा करनी चाहिए । असमय में और अनुचित उपाय से यदि योगाभ्यास किया जाये तो उससे भी अनर्थ ही होता है, लाभ नहीं होता है। ॥४९॥

अजातवत्सां यदि गां दुहीत नैवाप्नु यात्क्षीरमकालदोही ।कालेऽपि वा स्यान्न पयो लभेत मोहेन शृङ्गाद्यदि गां दुहीत ॥५०॥

जिस गाय को बछड़ा नहीं हुआ है उसको यदि दूहा जाय तो असमय में दूहनेवाला मनुष्य दूध नहीं पायेगा; या यदि समय पर ही मनुष्य मूढ़तावश गाय के सींग को दूहे तो भी वह दूध नहीं पायेगा ।।५०॥

आर्द्राच्च काष्टाज्जवलनाभिकामो नैव प्रयत्नादपि वह्निमृच्छेत् । काष्ठाच शुष्कादपि पातनेन नैवाग्निमाप्नोत्यनुपायपूर्व ॥५१॥

अग्नि चाहने वाला मनुष्य गीले काठ से प्रयत्न करके भी अग्नि नहीं पायेगा और सुखे काठ को यदि (केवल नीचे) गिरा दे तो (इस) अनुचित उपाय के द्वारा अग्नि नहीं पा सकता है । ॥५१॥

तद्द शेकालौ विधिवत्परीक्ष्य योगस्य मात्रामपि चाभ्युपायं । बलाबले चात्मनि संप्रधार्यं कार्यः प्रयत्नोन तु तद्विरुद्धः ॥५२॥

इसलिए देश और काल तथा योग की मात्रा और उपाय की परीक्षा करके, अपने बलाबल (सामर्थ्य) का निश्चय करके प्रयत्न करना चाहिए, उनके विरुद्ध प्रयत्न नहीं करना चाहिए । ।।५२॥

प्रग्राहकं यत्तु निर्मित्तमुक्तमुद्धन्यमाने हृदि तन्न सेव्यं । एवं हि चित्तं प्रशमं न याति ® ® ® ना वह्नरिवेर्यमाणः ॥ ५३॥

जब हृदय (चित्त) उत्तेजित हो रहा हो तब प्रग्राहक (प्रेरित करने वाले, उद्योग में लगाने वाले) निमित्त (वस्तु) का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार चित्त शान्ति को प्राप्त नहीं होता है, जैसे हवा से प्रेरित होती अग्नि शान्त नहीं होती है । ॥५३॥

शमाय यत्स्यान्नियतं निमित्तं जातोद्धवे चेतसि तस्य कालः । एवं हि चित्तं प्रशमं नियच्छेत्प्रदीप्यमानोऽग्निरियोदकेन ॥५४॥

जब चित्त उत्तेजित हो रहा हो तब शान्तिकारक निमित्त (का सेवन) समयोचित है; क्योंकि इस प्रकार चित्त शान्त हो जाता है जैसे जल से प्रज्वलित अग्नि शान्त होती है। ॥५४॥

शमावहं यन्नियतं निमित्तं सेव्यं न तच्चेतसि लीयमाने ।एवं हि भूयो लयमेति चित्तमनीर्यमाणोऽग्निरिवाल्पसारः ॥५५॥

जब चित्त आलस्य में डुब रहा हो तब शान्तिकारक निमित्त का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार चित्त और भी ठंढा पड़ जाता है, जैसे थोड़ी-सी आग सुलगाई नहीं जाने से बुझ जाती है। ॥५५॥

प्रग्राहकं यन्नियतं निमित्त लयं गते चेतसि तस्य काल: ।क्रियासमर्थ हि मनस्तथा स्यान्मन्दायमानोऽग्निरिवेन्धनेन ॥५६॥

जब चित्त आलस्य में डुब रहा हो तब प्रग्राहक (प्रेरक) निमित्त (का सेवन) समयोचित है; क्योंकि इससे चित्त कार्य करने में समर्थ होता हैं, जैसे कि जलावन के पड़ने से बुझती हुई अग्नि (सुलगती है)। ॥५६॥

औपेक्षिकं नापि निमित्तमिष्टं लयं गते चेतसि सोद्धवे वा ।एवं हि तीव्रं जनयेदनर्थमुपेक्षितो व्याधिरिवातुरस्य ॥५७॥

जब चित्त अलसा रहा हो या उत्तेजित हो रहा हो तब उपेक्षा उत्पन्न करनेवाला निमित्त अभीष्ट नहीं है; क्योंकि इससे बड़ा अनर्थ होता है, जैसे रोगी के रोग की अवहेलना करने से बढ़ा अनिष्ट होता है। ॥५७॥

यत्स्यादुपेक्षानियतं निमित्तं साम्यं गते चेतसि तस्य कालः । एवं हि कृत्याय भवेत्प्रयोगो रथो विधेयाश्व इव प्रयात: ।।५८॥

जब चित्त साम्य अवस्था को प्राप्त हुआ हो तब उपेक्षा उत्पन्न करनेवाला निमित्त समयोचित है; क्योंकि इस प्रकार प्रयोग करने से सफलता मिलती है, जैसे विनीत अश्वोवाले रथ के चलने से (अभीष्ट स्थान पर पहुँचते हैं)। ॥५८॥

रागोद्धवव्याकुलितेऽपि चित्ते मैत्रोपसंहारविधिर्य कार्यः ।रागात्मको मुह्यति मैत्रया हि स्नेहं कफक्षोभ इवोपयुज्य। ॥५९॥

चित्त जब राग की उत्तेजना से व्याकुल हो तब मैत्री-भावना का उपचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि रागात्मक (प्रकृति का) मनुष्य मैत्री-भावना के द्वारा मूढ़ता को प्राप्त होता है, जैसे कफ का प्रकोप होने पर (तेल आदि) स्निग्ध पदार्थ का उपयोग करके मनुष्य मूर्छिंत होता है। ।।५९॥

रागोद्धते चेतसि धैर्यमेत्य निषेवितव्यं त्वशुभं निमित्तं ।रागात्मको हे्य वमुपैति शर्म कफात्मको रूक्षमिवोपयुज्य । ॥६०॥

चित्त जब राग से उत्तेजित हो तब धैर्यपूर्वक अशुभ निमित्त का सेवन करना चाहिए; क्योंकि इस प्रकार रागात्मक (प्रकृति का) मनुष्य शान्ति लाभ करता है, जैसे कफात्मक (प्रकृति का) मनुष्य रूखे पदार्थ का उपयोग करके शन्ति प्राप्त करता है। ॥६०॥

व्यापाददोषेण मनस्युदीर्णे न सेवितव्यं त्वशुभं निमित्तं ।द्वेषात्मकस्य ह्यशुभा वधाय पित्तात्मनस्तीक्ष्ण इवोपचारः । ॥६१॥

चित्त जब व्यापाद (द्वेष) रूपी दोष से क्षुब्ध हो तब अशुभ निमित्त का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि द्वेषात्मक मनुष्य के लिए अशुभ का सेवन वैसे ही घातक होता है, जैसे कि पित्तात्मक के लिए तीक्ष्ण तीखे पदार्थ (का) उपचार । ।।६१॥

व्यापाददोषक्षुभिते तु चित्ते सेव्या स्वपक्षोपनयेन मैत्री।द्वेषात्मनो हि प्रशमाय मैत्री पित्तात्मन: शीत इवोपचारः ॥६२॥

व्यापादरूपी दोष से चित्त के क्षुब्ध होने पर (अपने मन में सब को) अपनाकर मैत्री (-भावना) का सेवन करना चाहिए; क्योंकि द्वेषात्मक मनुष्य के लिए मैत्री-भावना वैसे ही शान्ति दायक होती है, जैसे कि पित्तात्मक के लिए ठण्ढा उपचार । ॥६२॥

मोहानुबद्धे मनसः प्रचारे मैत्राशुभा चैव भवत्ययोगः।ताभ्यां हि संमोहमुपैति भूयो वाय्वात्मको रूक्षमवोपनीय। ॥६३॥

चित्त का व्यापार मोह (मूढ़त) से युक्त होने पर मैत्री और अशुभ का चिन्तन उपयुक्त नहीं होता है; क्योंकि इन दोनों (के चिन्तन) से और भी मोह होता है, जैसे वायु से पीड़ित रहनेवाला मनुष्य रूखे पदार्थ का सेवन कर और भी मूर्छिंत होता है। ॥६३॥

मोहात्मिकायां मनसः प्रवृत्तौ सेव्यस्त्विदंप्रत्ययताविहारः ।मुढे मनस्येष हि शान्तिमार्गो वाय्वात्मके स्निग्ध इवोपचार। ।।६४।।

मानसिक प्रवृत्ति मोह-युक्त होने पर कार्य-कारण सिद्धान्त का चिन्तन करना चाहिए; क्योंकि मोह-युक्त चित्त के लिए यही शान्ति का मार्ग है, जैसे वायु से पीड़ित रहनेवाले के लिए स्निग्ध उपचार शान्ति-प्रद होता है। ॥६४॥

उल्कामुखस्थं हि यथा सुवर्ण सुवर्णकारों धमतीह काले ।काले परिप्रोक्षय ते जलेन क्रमेण काले समुपेक्षते च। ।।६५।।

जैसे सुनार इस संसार में अंगीठी पर सोने को समय पर धौंकता हैं, समय पर जल से सिक्त करता है और क्रम से समय पर उसको (चुपचाप) छोड़ देता है; ॥६५॥

दहेत्सुवर्णं हि धमन्नकाले जले क्षिपन्संशमयेदकाले । न चापि सम्यक् परिपाकमेन नयेदकाले समुपेक्षमाण: ॥ ६६॥

क्योंकि सोने को असमय में धौंककर जला डालेगा, असमय में जल में डालकर ठंढा कर देगा और असमय में (अलग) रखकर सम्यक् रूप से परिपक्क नहीं कर सकेगा । ॥६६॥

संप्रग्रहस्य प्रशमस्य चेव तथैव काले समुपेक्षणस्य। सम्यक् निमित्त मनसा त्ववेक्ष्यं नाशो हि यत्नोऽप्यनुपायपूर्वः ॥६७॥

उसी प्रकार (चित्त के) उद्योग शान्ति और समय पर उपेक्षा के लिए सम्यक् निमित्त (भावना की वस्तु) की मन से पहचान करनी चाहिए। क्योंकि अनुचित उपाय से किया गया प्रयत्न नष्ट हो जाता है ।" ॥६७॥

इत्येवमन्यायनिवर्तनं च न्यायं च तस्मै सुगतो बभाषे।भूयश्च तत्तच्चरितं विदित्वा वितर्कहानाय विधीनुवाच॥६८॥

इस प्रकार सुगत (बुद्ध) ने अनुचित का परित्याग और उचित उपाय (का सेवन) बतलाया; और फिर नन्द ने जो कुछ आचरण किया था उसको जानकर उन्होंने वितर्कों के विनाश का तरीका बतलाया। ॥६८॥

यथा भिषक् पित्तकफानिलानां य एव कोपं समुपैति दोषः।‌ शमाय तस्यैव विधिं विधत्ते व्यधत्त दोषेषु तथैव बुद्धः ॥६९॥

वैद्य जैसे कफ, पित्त, वायु में से जिस किसी दोष का प्रकोप होता उसकी शान्ति के लिए उपचार बतलाता है वैसे ही बुद्ध ने (राग-देष आदि) दोषों के सम्बन्ध में उपाय बतलाया। ॥६९॥

एकेन कल्पेन सचेन्न हन्यात्स्वभ्यस्तभावादशुभान्वितर्कान् । ततो द्वितीयं क्रममारभेत न त्वेव हेयो गुणवान्प्रयोगः ॥७०॥

यदि किसी एक उपाय से अशुभ वितर्कों का विनाश न हो सके तो किसी दूसरे उपाय को शुरू कर; किंतु उत्तम उद्योग को कभी न छोडे। ॥७०॥

अनादिकालोपचितात्मकत्वाद्वलीयसः क्लेशगणेस्य चैव।सम्यक प्रयोगस्य च दुष्करत्वाच्छेत्तुं न शक्याः सहसा हि दोषाः। ॥७१॥

अनादि काल से संचित होने के कारण क्लेशो का समूह बलवान् हो जाता है और सम्यक रूप से उद्योग करना कठिन है, इसलिए सहसा ही दोषों को उन्मूलित (नष्ट) नहीं किया जा सकता। ॥७१॥

अण्व्या यथाण्या विपुलाणिरन्या निर्वाह्यते तद्विदुषा नरेण । तद्वत्तदेवाकुशलं निमित्तं क्षिपेन्निमित्तान्तरसेवनेन ।।७२॥

जैसे कुशल मनुष्य (कारीगर) छोटी पच्चल (कील) देकर बड़ी पच्चल को बाहर निकाल लेता है, उसी प्रकार दूसरे निमित्त का सेवन करके अकुशल निमित्त को निकाल फेंकना चाहिए। ॥७२॥

तथाप्यथाध्यात्मनवग्रहस्वान्नैवोपशाम्येदशुभो वितर्का:। हेयः स तद्दोषपरीक्षणेन सश्वापदो मार्ग इवाध्वगेन ॥७३॥

इतना होने पर भी यदि हाल में आध्यात्म (मार्ग) ग्रहण करने के कारण अशुभ विर्तक (विचार) शान्त न हो तो उसकी बुराई की जाँच करके उसका परित्याग करना चाहिए, जैसे कि यात्री हिंसक पशुओं से सेवित मार्ग को छोड़ देता है। ॥७३॥

यथा क्षुधार्तोऽपि विषेण पृक्त जिजीविषुर्नेच्छति भोक्तु मन्नं । तथैव दोषावहमिस्यवेत्य जहाति विद्वानशुभं निमित्तं। ॥७४॥

जैसे भूखा होने पर भी मनुष्य विष-मिला हुआ अन्न नहीं खाना चाहता है, वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य अशुभ निमित्त को दोषावह (दोष उत्पन्न करने वाला) समझकर छोड़ देता है। ॥७४॥

न दोषतः पश्यति यो हि दोषं कस्तं ततो वारयितुं समर्थः। गुणं गुणे पश्यति यश्च यत्र स वार्यमाणोऽपि ततः प्रयाति ॥७५॥

जो आदमी दोष को दोष नहीं समझता है उसको उससे कौन हटा सकता है और जो आदमी जिस गुण को गुण समझता है वह रोका जाने पर भी वहीं जाता है। ॥७५॥

व्यपत्रपन्ते हि कुलप्रसूता मनःप्रचारैरशुभै: प्रवृत्ते:। कण्ठे मनस्वीव युवा वपुष्मानचाक्षु षैरप्रयतैर्विषक्त: ॥७६॥

उत्तम कुल में उपन्न मनुष्य अपनी अशुभ मानसिक प्रवृत्तियों से लज्जित होते हैं, जेैसे कि कोई मनस्वी औ्र रूपवान् युवा अपने गले में लगे (लटकते) हुए अदर्शनीय एवं अपवित्र वस्तुओं से लज्जा को प्राप्त होता है। ॥७६॥

निधुर्यमानास्त्वथ लेशतोऽपि तिष्ठे युरेवाकुशला वितर्काः।कार्यान्तरैरध्ययनक्रियाद्यैः सेव्यो विधिर्विस्मरणाय तेषां ॥७७॥

निवारण किये जाने पर यदि लेशमात्र भी अकुशल वितर्क (बुरे विचार) रह जाये तो अध्ययन आदि दूसरे कार्यों द्वारा उन्हें भुला देने का उपाय करना चाहिए। ॥७७॥ 

स्वप्तव्यमप्येव विचक्षणेन कायक्लमो वापि निषेवितव्यः।
न त्वेव संचिन्त्यमसन्निमित्तं यत्रावसक्तस्य भवेदनर्थ: ॥७८॥

समझदार आदमी को सो रहना चाहिए या किसी शारीरिक श्रम में लग जाना चाहिए; किन्तु कभी भी उस अकुशल निमित्त का चिन्तन नहीं करना चाहिए, जिसमें लीन होने पर अनर्थ हो सकता है। ॥७८॥

यथा हि भीतो निशि तस्करेभ्यो द्वारं प्रियेभ्योऽपि न दातुमिच्छेत प्राज्ञस्तथा संहरति प्रयोगं समं शुभस्याष्यभस्य दोषै: ॥७९॥

जैसे चोरों से डरा हुआ मनुष्य रात्रि-काल में अपने प्रिय जनों के लिए भी द्वार नहीं खोलता है, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य दोषों के डर से शुभ और अशुभ (विचारों) का प्रयोग (अभ्यास, प्रवेश) एक साथ रोक देता है। ॥७९॥

एवंप्रकारैरपि यद्युपायैर्निवार्यमाणा न पराङ्खाः स्युः ।ततो यथास्थूलनिबर्हणेन सुवर्णदोषा इव ते प्रहेया: ॥८०॥

यदि ऐसे ऐसे उपायों से भी निवारण किये जाने पर वे विमुख न हों तो सोने की गन्दगियों (सुवर्ण-कणों में मिले हुए रज-कणों) के समान उन (दोषों, बुरे विचारों) की स्थूलता के अनुसार क्रम से उन्हें छोड़ देना चाहिए। II८०॥

द्रुतप्रयाणप्रभृतींश्च तीक्ष्णात्कामप्रयोगात्परिसखिद्यमान:।यथा नरः संश्रयते तथैव प्राज्ञेन दोष्वपि वर्तितव्यं ॥८१॥

जैसे तीव्र काम से पीड़ित मनुष्य तेजी से टहलना आदि उपायों का आश्रय लेता है वैसे ही दोषों के विषय में भी समझदार आदमी को बरतना चाहिए। ॥८१॥

ते चेदलब्धप्रतिपक्षभावा नैवोपशाम्येयुरसद्वितर्काः ।मुहूर्तमप्यप्रतिबध्यमाना गृहे भुजंगा इव नाधिवास्याः। ॥८२॥

यदि उनके विरोधी भाव उत्पन्न न हो सकने के कारण वे अकुशल वितर्क (बुरे विचार) शान्त न हों तो घर में घुसे हुए सर्पों के समान उन्हें क्षण भर के लिए भी निर्विरोध नहीं ठहरने देना चाहिए। ॥८२॥

दन्तेऽपि दन्तं प्रणिधाय कामं ताल्वग्रमुत्पीड्य च जिह्वयापि। चित्तेन चित्तं परिगृह्य चापि कार्य: प्रयत्नो न तु तेऽनुवृत्ता: ॥८३॥

दाँत पर दाँत रखकर, जिह्वा से तालु के अम्रभाग को उत्पीडित कर, और चित्त से चित्त का निग्रह करके प्रयत्न करना चाहिए; किंतु उनके अनुकूल नहीं होना चाहिए (उनके आगे झुकना नहीं चाहिए)। ॥८३॥

किमत्र चित्रं यदि वीतमोहो वनं गतः स्वस्थमना न मुह्यते।आक्षिप्यमाणो हृदि तन्निमित्तैर्न क्षोभ्यते यः स कृती स धीरः ॥८४॥

इसमें क्या आश्चर्य यदि मोह-रहित मनुष्य वन में जाकर स्वस्थ-चित्त रहे और मोह में न पड़ें ? (दोषों के कारणरूप अकुशल) निमित्तों द्वारा हृदय में पीड़ित होता हुआ जो क्षुब्ध नहीं होता है, वही धन्य है वही धीर है। ॥८४॥

तदार्यसत्याधिगमाय पूर्वं विशोधयानेन नयेन मार्गं।यात्रागतः शत्रुविनिग्रहार्थ राजेव लक्ष्मीमजितां जिगीषन ॥८५॥

इसलिए आर्यसत्य की प्राप्ति के लिए इस विधि से पहले मार्ग को शुद्ध करो; जैसे शत्रु के निग्रहार्थ यात्रा पर जानेवाला राजा अविजित लक्ष्मी को जीतने की इच्छा से पहले रास्ता साफ करवाता है। ॥८५॥

एतान्यरण्यान्यभितः शिवानि योगानुकूलान्यजनेरितानि।कायस्य कृत्वा प्रविवेकमात्रं क्लेशप्रहाणाय भजस्व मार्गं ॥८६॥

ये मङ्गलमय योगानुकूल विजन वन चारों ओर फैले हुए हैं। शरीर को एकान्त में करके मार्ग (उचित उपाय) का सेवन करो। ।।८६॥

कौण्डिन्यनन्दकृमिलानिरुध्दास्तिष्योपसेनौ विमलोऽथ राध:। बाष्पोत्तरौ धौतकिमोहराजौ कात्यायनद्रव्यपिलिन्दवत्साः ॥८७॥

कौण्डिण्य, नन्द, कृमिल, अनिरुद्ध, तिष्य, उपसेन, विमल, राध, बाष्प, उत्तर, धौतकि, मोहराज, कात्यायन, द्रव्य, पिलिन्दवत्स, ॥८७॥

भद्दालिभद्रायणसर्पदाससुभूतिगोदत्तसुजातवत्सा:।संग्रामजिद्भद्रजिदश्वजिश्च श्रोणश्च शोनश्च स कोटिकर्णः॥८८॥

भाद्दालि, भद्रायण, सर्पदास, सुभूति, गोदत्त, सुजात, वत्स, संग्राम-जित्, भद्रजित्, अश्वजित्, श्रोण, शोण, कोटिकर्ण, ॥८८॥

क्षमाजितो नन्दकनन्दमाता वुपालिवागीशयशोयशोदाः।महाह्वयो वल्कलिराष्ट्रपालौ सुदर्शनस्वागतमेघिकाश्च ॥८९॥

क्षेमा, अजित, नन्दक, नन्दमाता, (महाप्रजापती गौतमी), उपालि, वागीश, यश, यशोदा, महाह्वय (महानाम), वल्कलि, राष्ट्रपाल, सुदर्शन, स्वागत, मेघिक, ।।८९॥

स कप्फिनः काश्यप औरुविल्वो महामहाकाश्यपतिष्यनन्दा:। पूर्णश्च पूर्णश्च स पूर्णकश्च शोनापरान्तश्च स पूर्ण एवं ॥९०॥

कप्फिन, औरुविल्व काश्यप, महामहाकाश्यप, तिष्य, नन्द, पूर्ण, पूर्ण, पूर्णक, पूर्ण, शोणापरान्त। ॥९०॥

शारद्वतीपुत्रसुबाहुचुन्दाः कोन्देयकाप्यभृगुकुण्ठधानाः ।सशैवलौ रेवतकौष्ठिलौ च मौद्गल्यगोत्रश्च गवांपतिश्च ॥९१॥

शारद्वतीपुत्र, सुबाहु , चुन्द, कोन्देय, कापूय, भृगु , कुण्ठधान, शैवल, रेवत, कौष्ठिल, मौद्गल्यायन और गवांपति ने ॥९१॥

यं विक्रमं योगविधावकुर्वस्तमेव शीघ्रं विधिवत्कुरुष्व ।ततः पदं प्राप्स्यसि तैरवाप्त' सुखावृतैस्वं नियतं यशश्च ॥९२॥

योगाभ्यास में जो पराक्रम किया था वही तुम भी शीघ्र विधिपूर्वक करो और तब निश्चय ही वह पद और यश पाओगे जो कि इन (उपर्युक्त) धन्य व्यक्तियों ने पाया था। ॥९२॥

द्रव्यं यथा स्यात्कटुकं रसेन तच्चोपयुक्तं मधुरं विपाके।तथैव वीर्यं कटुकं श्रमेण तस्यार्थसिद्धयै मधुरा विपाकः।।९३॥

जिस प्रकार दव्य-विशेष का रस कडवा होता है और उसका उपयोग करने पर मीठा फल मिलता है, उसी प्रकार थकावट के कारण उद्योग कटु (कष्टप्रद और अप्रिय) होता है, किंतु लक्ष्य की सिद्धि हो जाने पर मीठा फल मिलता है। ।॥९३॥

वीर्यं परं कार्यकृतौ हि मूलं बीर्याद्दते काचन नास्ति सिद्धिः । उदेति वीर्यादिह सर्वेसंपन्निर्वीर्यता चेत्सकलश्च पाप्मा ॥९४॥

कार्य की सफलता का मूल कारण है उत्तम उद्योग, उद्योग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं होती है, उद्योग से ही सब समृद्धियों का उदय होता है और जहां उद्योग नहीं है वहां पाप ही पाप है ॥९४॥

अलब्धस्यालाभो नियतमुपलब्धस्य विगम-स्तथैवात्मावज्ञा कृपणमधिकेभ्य: परिभवः। तमो निस्तेजत्स्वं श्रुतिनियमतुष्टिव्युपरमो नृणां निर्वीर्याणां भवति विनिपातश्च भवति ॥९५॥

अनुद्योगी मनुष्यों को निश्चय ही अप्राप्त वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होती है और उनकी प्राप्त वस्तुओं का भी नाश हो जाता है, उनका आत्म-सम्मान चला जाता है, वे दीन हीन हो जाते हैं, बलवानों से अपमानित होते हैं, मानसिक अन्धकार में रहते हैं, उनका तेज क्षीण हो जाता है, विद्या, संयम और संतोष नष्ट हो जाता है, (सब प्रकार से) इनका पतन होता है ॥९५॥

नयं श्रुत्वा शक्तो यदयमभिवृद्धिं न लभते परं धर्म ज्ञात्वा यदुपरि निवासं न लभते । गृहं त्यक्त्वा मुक्तौ यदयमुपशान्तिं न लभते । निमित्तं कौसीद्यं भवति पुरुषस्यात्र न रिपुः ॥९६॥

शक्तिशाली मनुष्य उपाय सुनकर अपनी उन्नति जो नहीं करता है, धर्म उत्तम सुनकर ऊपर का निवास (उत्तम पद) जो नहीं प्राप्त करता है और मुक्ति के लिए घर छोड़कर शान्ति लाभ जो नहीं करता है, इसका कारण उसका अपना ही आलस्य है, न कि (कोई बाहरी) शत्रु ॥९६॥

अनिक्षिप्तोत्साही यदि खनति गां वारि लभते । प्रसक्तं व्यामथ्नन् ज्वलमरणिभ्यां जनयति । प्रयुक्ता योगे तु ध्रु वमुपलभन्ते श्रमफलं द्रतं नित्यं यान्त्यो गिरिमपि हि भिन्दन्ति सरितः। ॥९७॥

उत्साह खोये विना पृथ्वी को खोदने वाला मनुष्य जल प्राप्त करता है, लकड़ियों को लगातार रगड़नेवाला मनुष्य अग्नि उत्पन्न करता है, योगाभ्यासी पुरुष अवश्य अपने परिश्रम का फल प्राप्त करते हैं और निरन्तर द्रुतगति से बहनेवाली नदियाँ पर्वत को भी फोड़ती हैं। ॥९७॥

कृष्ट्वा गां परिपाल्य च श्रमशतैरश्रोति सस्यश्रियं यत्नेन प्रविगाह्य सागरजलं रत्नश्रिया क्रीडति । शत्रूणामवधूय वीर्यमिषुभिर्भुङ्क्ते नरेन्द्रश्रियं तद्वीर्य कुरु शान्तये विनियतं वीर्ये हि सर्वर्ध्दयः ॥९८॥

भूमि को जोतकर और अत्यन्त परिश्रमपूर्वक (खेत की) रखवाली कर मनुष्य उत्तम सस्य प्राप्त करता है, प्रयत्नपूर्वक समुद्र के जल में प्रविष्ट होकर वह (मनुष्य) उत्तम रत्न-राशि से क्रीड़ा करता है, तीरों से शत्रुओं के उद्योग को निष्फल कर वह (मनुष्य) राज-लक्ष्मी का उपभोग करता है; अतः शान्ति प्राप्त करने के लिए उद्योग करो; क्योंकि उद्योग में ही सब समृद्धियों का निवास है। ॥९८॥

सौन्दरनन्दे महाकाव्ये आर्यसत्यव्याख्यानो नाम षोडशः सर्ग: ।

सौन्दरनन्द महाकाव्य में "आर्य-सत्य-व्याख्यान" नामक षोडश (सोलहवां) सर्ग समाप्त । 


Wednesday, January 27, 2021

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, भाग १

सौन्दरनन्द-आर्यसत्यों की व्याख्या, षोडश सर्ग:

अबोधतो ह्यप्रतिवेधतश्च तत्त्वात्मकस्यास्य चतुष्टयस्य। भवाद्भवं याति न शान्तिमेति संसारदोलामधिरुह्य लोकः। ॥६॥

इस तत्वात्मक चार (आर्य-सत्य-समूह) को न समझ बूझ सकने के कारण मनुष्य संसाररूपी दोला पर चढ़कर एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है और शान्ति प्राप्त नहीं करता है। ॥६॥

तस्माज्जरादेर्व्यसनस्य मूलं समासतो दुःखमवैहि जन्म।सर्वौषधीनामिव भूर्भवाय सर्वापदां क्षेत्रमिदं हि जन्म। ॥७॥

इसलिए संक्षेप में जानो कि जरा आदि विपत्तियों का मूल जन्मरूपी दुःख है, जैसे सभी औषधियों की उत्पत्ति भूमि से होती है वैसे ही सभी विपत्तियों का (उत्पत्ति-) क्षेत्र जन्म है। ॥७॥

यज्जन्म रूपस्य हि सेन्द्रियस्य दुःखस्य तन्ने कविधस्य जन्म। यः संभवश्चास्य समुच्छ्रयस्य मृत्योश्च रोगस्य च संभवः सः। ॥८॥

इन्द्रियों सहित रूप की जो उत्पत्ति है वही उत्पत्ति (कारण) है अनेक प्रकार के दुःख का । इस शरीर का जो कारण है वही कारण है मृत्यु और रोग का । ॥८॥

सद्वाप्यसद्वा विषमिश्रमन्नं यथा विनाशाय न धारणाय ।लोके तथा तिर्यगुपर्यधो वा दुःखायसर्वंन सुखाय जन्म । ।।९॥

जैसे विष मिला हुआ अन्न, अच्छा हो या बुरा, विनाशक ही होता है न कि रक्षक या पोषक, वैसे ही संसार में पशु-पक्षियों की ऊपर या नीचे की योनि में कहीं भी जन्म लेना दुःख का ही कारण होता है, सुख का नहीं । ।।९॥ 

जरादयो नैकविधा प्रजानां सत्यां प्रवृत्तौ प्रभवन्त्यनर्थाः।प्रवात्सु घोरेष्वपि मारुतेषु न ह्यप्रसूतास्तरवश्चलन्ति । ॥१०॥

सांसारिक प्रवृत्ति के रहते प्राणियों को बुढापा आदि अनेक प्रकार की विपत्तियां होती हैं । (किंतु प्रवृत्ति अर्थात् जन्म के अभाव में उन्हें ये विपत्तियां नहीं सहनी पड़ती हैं), जैसे भीषण आंधी के चलते रहने पर भी अनुत्पन्न वृक्ष चलायमान नहीं होते । ॥१०॥

आकाशयोनिः पवनो यथा हि यथा शमीगर्भशयो हुताश ।आपो यथान्तर्वसुधाश्याश्च दुःख तथा चित्तशरीरयोनि। ॥ ११॥

जैसे आकाश में हवा की उत्पत्ति होती है, शमी नामक लकड़ी के भीतर अग्नि रहती है‌ और पृथ्वी के भीतर पानी रहता है वैसे ही चित्त और शरीर में दुःख की उत्पत्ति होती है । ॥११॥

अपां द्रवत्वं कठिनत्वमुर्व्या वायोश्चलत्व ध्रूषमौष्ण्यमग्नेः । यथा स्वभावो हि तथा स्वभावो दुःखं शरीरस्य च चेतसञ्च ॥१२॥

पानी का द्रवत्व, पृथ्वी की कठोरता (ठोस होने का गुण); हवा की अस्थिरता और अग्नि की उष्णता स्वभाव है, वैसे ही चित्त और शरीर का स्वभाव दुःख है। ॥१२॥

काये सति व्याधिजरादि दुःखं क्षुत्तर्षवर्षोष्णहिमादि चैव ।रूपाश्रिते चेतसि सानुबन्धे शोकारतिक्रोधभयादि दुःखं । ॥१३॥

शरीर के रहते रोग, बुढ़ापा आदि तथा भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, वर्षा आदि दुःख होते ही हैं वैसे ही रूप में आश्रित तथा अनुबन्ध-युक्त चित्त में शोक, अरति, क्रोध, भय आदि दु:ख होते ही हैं। ॥१३॥

प्रत्यक्षमालोक्य च जन्मदुःखं दुःख तथातीतमपीति विद्धि । यथा च तद्दुःखमिद च दुःख दुःखं तथानागतमप्यवेहि ॥१४॥

जन्म के दुःख को प्रत्यक्ष देखकर बीते हुए दुख को भी वैसा ही समझो और जैसा कि वह (बीता हुआ) दुःख था और यह (वर्तमान) दुःख है वैसा ही भावी दु:ख को भी समझो । ॥१४॥ 

बीजस्वभावो हि यथेह दृष्टो भूतोऽपि भव्योऽsपि तथानुमेय । प्रत्यक्षतश्च ज्वलनो यथोष्णो भूतोऽपि भव्योऽपि तथोष्ण एव ।॥१५।।

बीज का जैसा स्वभाव यहाँ देखा जाता है वैसा ही (अतीत में) था और वैसा ही (भविष्य में) रहेगा भी, यह अनुमान करना चाहिए और अग्नि प्रत्यक्ष में जैसी गर्म है वैसी ही गर्म थी और रहेगी भी।॥१५॥

तन्नामरूपस्य गुणानुरूपं यत्रैव निवृत्तिरुदारवृत्त । तत्रैव दुःखं न हि तद्विमुक्तं दु.खं भविष्यत्यभवद्भवेद्वा ॥१६॥

हे उदार आचरण वाले, गुणो के अनुसार जहाँ नाम-रूप की निष्पत्ति होती है वहीं दुःख है, इसको छोड़कर और कहीं भी दुःख न है, न था और न होगा। ॥१६॥

प्रकृत्तिदुःखस्य च तस्य लोके तृष्णादयो दोषगणा निमित्तं । नैवेश्वरो न प्रकृतिने कालो नापि स्वभावो न विधिर्यदृच्छा ॥१७॥

संसार में इस प्रवृत्ति (जन्म) रूपी दुःख का कारण तृष्णा आदि दोषों का समूह है; ईश्वर, प्रकृति, काल, स्वभाव, विधि या संयोग इसका कारण नहीं है। ।।१७॥

ज्ञातव्यमेतेन च कारणेन लोकस्य दोषेभ्य इति प्रवृत्ति ।यस्मान्त्रियन्ते सरजस्तमस्का न जायते वीतरजस्तमस्कः । ॥१८॥

अतः जानना चाहिए कि दोषों (तृष्णा आदि) से ही संसार की उत्पत्ति होती है; जो रज (मन का मैल) और तम (चित्त का अन्धकार) से युक्त हैं वे (फिर से जन्म लेने के लिए) मरते हैं, किन्तु जिसका रज और तम नष्ट हो गया है वह फिर जन्म नहीं लेता है । ॥१८॥

इच्छाविशेषे सति तत्र तत्र यानासनादेर्भवति प्रयोगः।यश्मादतस्तर्षवशात्तथैव जन्म प्रजानामिति वेदितव्यं ॥१९॥

उस उस विषय को इच्छा होने पर ही चलने और बैठने आदि की क्रिया होती है, इसलिए जानना चाहिए कि तृष्णा के वशीभूत होने पर ही प्राणियों का जन्म होता है । ॥१९॥

सत्वान्यभिष्वङ्गवशानि दृष्ट्वा स्वजातिषु प्रीतिपराण्यतिव । अभ्यासयोगादुपपादितानि तैरेव दोषैरति तानि विद्धि ।।२०॥

जीव आसक्तियों के अधीन और अपने अपने जन्म (जीवन, योनि) से प्रीति करते हुए देखे जाते हैं ; (आसक्तियों और प्रीति के) अभ्यास के कारण ही वे उन दोषो के साथ फिर जन्म लेते हैं, ऐसा जानना चाहिए । ।।२०॥

क्रोधप्रहर्षादिभिराश्रयाणामुत्पद्यते चेह यथा विशेषः ।तथैव जन्मस्वपि नैकरूपो निर्वर्तते क्लेशकृतो विशेषः। ॥२१॥

जैसे इस संसार में क्रोध और प्रसन्नता आदि के द्वारा प्राणियों में विशेषता होती है (अर्थात् कोई क्रोधी, कोई प्रसन्नचित्त होता है) वैसे ही भिन्न भिन्न जन्मों में अपने अपने दोषों के कारण उनमें अनेक प्रकार की विशेषता होती है । ॥२१॥

दोषाधिके जन्मनि तीव्रदोष उत्पद्यते रागिणि तीव्ररागः ।मोहाधिके मोहबलाधिकश्च तदल्पदोषे च तदल्पदोषः ।।२२॥

जिसमें दोषों की अधिकता होती है उसका जन्म होने पर तीव्र दोष उत्पन्न होता है, जिसमें (अत्यन्त) राग होता है उसका जन्म होने पर तीव्र राग उत्पन्न होता है, जिसमें मोहाधिक्य होता है उसका जन्म होने पर मोह-बल की अधिकता होती है और जिसमें अल्प दोष होता है उसका जन्म होने पर अल्प दोष होता है । ॥२२॥

फलं हि यादृक् समवैति साक्षात्तदागमाद्वीजमवैत्यतीतं ।अवेत्य बीजप्रकृति च साक्षादनागतं तत्फलमभ्युपैति ॥२३॥

मनुष्य फल को साक्षात् जैसा देखता है, उसी के अनुसार उसके ही अतीत (पूर्व) बीज को (वैसा ही) सममझ लेता है और बीज के स्वभाव को साक्षात देखकर उसके अनागत (भावी) फल को भी समझ लेता है। ॥२३॥

दोषक्षयो जातिषु यासु यस्य वैराग्यतस्तासु न जायते सः । दोषाशयस्तिष्ठति यस्य यत्र तस्योपपत्तिर्विवशस्य तत्र ॥२४॥

जिन (प्रकारों के) जन्मों में जिसके दोषों का नाश हो गया है उनमें वैराग्य होने के कारण वह फिर जन्म नहीं लेता; किन्तु जिन (प्रकारों के जन्मों) में जिसका दोषाशय रह जाता है उनमें वह विवश होकर जन्म लेता है। ॥२४॥

तज्जन्मनो नैकविधस्य सौम्य तृष्णादयो हेतव इत्यवेत्य ।तांश्छ्रन्धि दुखाद्यदि निर्मुमुक्षा कार्यक्षयः कारणसंक्षयाद्धि। ॥२५।।

इसलिए, हे सौम्य, अनेक प्रकार के जन्मों का कारण हैं तृष्णा आदि दोष; यदि दुःख से मुक्त होने की इच्छा है तो उन दोषों को काटो, क्योंकि कारण के नाश से कार्य का नाश होता है। ॥२५॥

दुःखक्षयो हेतुपरिक्षयाच्च शान्तं शिवं साक्षिकुरुष्व धर्मं।तृष्णाविरागं लयनं निरोधं सनातनं त्राणमहार्यमार्यं। ॥२६॥

कारण का नाश होने से दुःख का नाश होता है। शान्त एवं मङ्गल-मय धर्म का साक्षात्कार करो, जो तृष्णा-विनाशक, आश्रय रूप, निरोध-रूप, सनातन, रक्षक, अविनाशी और पवित्र है। ॥२६॥

यस्मिन्न जातिर्न जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोगः ।नेच्छाविपन्न प्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् ॥२७॥

(उस पद की खोज करो) जिसके प्राप्त होने पर न जन्म होता है, न बुड़ापा, न मृत्यु, न व्याधि, न अप्रिय-संयोग, न इच्छा-विघात (या इच्छा रूपी विपत्ति) और न प्रिय वियोग; वह कल्याण-कारी पद नैष्ठिक और अक्षय है। ॥२७॥

दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं ।दिशं न कांचिद्विदिशं न कोचित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिं ॥२८॥

जिस प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ दीप न पृध्वी पर रहता है, न आकाश में जाता है, न किसी दिशा या विदिशा में; किंतु तेल समाप्त हो जाने पर केवल शान्ति को प्राप्त होता है; ॥२८॥

एवं कृती निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं।दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित्क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिं। ॥२९॥

उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ धन्य (पुण्यात्म, पवित्र साधु) पुरुष न पुथ्वी पर रहता है, न आकाश में जाता है, और न किसी दिशा या विदिशा में ही; किंतु क्लेशों (पापों, दोषों) का नाश होने पर केवल शान्ति को प्राप्त होता है। ॥२९॥

अश्याभ्युपायोऽधिगमाय मार्ग: प्रज्ञात्रिकल्प: प्रशमद्विकल्पः। स भावनीयो विधिवद्बुधेन शीले शुचौ त्रिप्रमुखे स्थितेन। ॥३०॥

इसकी प्राप्ति का उपाय है वह मार्ग, जो त्रिविध प्रज्ञा एवं द्विविध शान्ति से युक्त है; पवित्र त्रिविध शील में स्थित होकर बुदिमान् मनुष्य को उस (मार्ग) की भावना करनी चाहिए। ॥३०॥

वाक्कर्म सम्यक् सहकायकर्म यथावदाजीवनयश्च शुद्धः।इदं त्रयं वृत्तविधौ प्रवृत्तं शीलाश्रयं कर्मपरिग्रहाय। ॥३१॥

वाणी और शरीर के सम्यक् कर्म और शुद्ध आजीविका - ये तीनों आचरण से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय शील है, इनके द्वारा कर्मों का निग्रह होता है। ॥३१॥

सत्येषु दुःखदिषु दृष्टिरार्या सम्यग्वितर्कश्व पराक्रमश्च। इदं त्रयं ज्ञानविधौ प्रवृत्ं प्रज्ञाश्रयं क्लेशपरिक्षयाय। ॥३२॥

दुःख आदि सत्यों के विषय में सम्यक दृष्टि, सम्यक विचार और सम्यक् प्रयत्न ये तीन ज्ञान से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय प्रज्ञा है, इनके द्वारा क्लेशों का नाश होता है। ॥३२॥

न्यायेन सत्याधिगमाय युक्ता सम्यक् स्मृति: सम्यगथो समाधिः। इदं द्वयं योगविधौ प्रवृत्तं शमाश्रयं चित्तपरिग्रहाय। ॥३३॥

सम्यक् स्मृति, जो सत्य की प्राप्ति में न्यायपूर्वक लगी हुई हो तथा सम्यक समाधि - ये दो योग से सम्बन्धित हैं, इनका आश्रय शम (शान्ति) है, इनके द्वारा चित्त का निग्रह होता है। ॥३३॥

क्लेशांकुरान्न प्रतनोति शीलं बीजांकुरान काल इवातिषृत्तः। शुचौ हि शीले पुरुषस्य दोषा मनः सलज्जा इव धर्षयन्ति। ॥३४।।

शील के रहते क्लेशों (दोषों) के अंकुर नहीं पनप सकते, जैसे अकाल में बीजों से अंकुर नहीं उग सकते। पवित्र शील में रहने वाले मनुष्य के मन पर आक्रमण करने में दोष भी मानो लज्जित होते हैं। ॥३४॥

क्लेशांस्तु विष्कम्भयते समाधिर्वेगानिवाद्रिर्महतो नदीनां।स्थिते समाधौ हि न धर्षयन्ति दोषा भुजंगा इव मन्त्रबद्धाः। ॥३५॥

समाधि क्लेशों को रोकती है, जैसे पर्वत नदियों के महावेग में रुकावट डालता है। समाधिस्थ होने पर मन्त्र-बद्ध सर्पों के समान दोष आक्रमण नहीं कर सकते। ॥३५॥

प्रज्ञा त्वशेषेण निहन्ति दोषांस्तीरद्रुमान्प्रावृषि निम्नगेव।दग्धा यया न प्रभवन्ति दोषा वज्राग्निनेवानुसृतेन वृक्षा: ॥३६॥

प्रज्ञा दोषों को नि:शेष मार डालती है, जैसे वर्षाकाल में नदी अपने तटवर्ती वृक्षों को उखाड़ फेंकती है। प्रज्ञा से दग्ध होकर दोष उत्पन्न नहीं होते, जैसे फैलती हुई वज्राग्नि से वृक्ष जलकर नहीं पनपते। ॥३६॥

त्रिस्कन्धमेतं प्रविगाह्य मार्गं प्रस्पष्टमष्टाङ्गमहार्यमार्य।दुःखस्य हेतून्प्रजहाति दोषान्प्राप्नोति चात्यन्तशिवं पदं तत् । ॥३७॥

(शील-समाधि-प्रज्ञा रूपी) तीन स्कन्धों वाले इस स्पष्ट आर्य अष्टाङ्गिक अविनाशी मार्ग पर आारूढ होकर मनुष्य दुःख हेतुरूप दोषों को छोड़ता है और उस अत्यन्त मङ्गलमय (निर्वाण-) के पद को प्राप्त करता है। ॥३७॥

अस्योपचारे धृतिरार्जवं च ह्रीरप्रमादः प्रविविक्तता च। अल्पेच्छता तुष्टिरसंगता च लोकप्रवृत्तावरतिः क्षमा च। ॥३८॥

इस (दुःख) के उपचार में धैर्य, सरलता, लज्जा, अप्रमाद (सावधानी), एकान्त, अल्पेच्छता, संतोष, आसक्ति के अभाव, सांसारिक प्रवृत्ति में अरुचि और क्षमा की आवश्यकता होती है। ॥३८॥

याथात्म्यतो विन्दति यो हि दुःखं तस्योद्भवं तस्य च यो निरोधं। आर्येण मार्गेण स शान्तिमेति कल्याणमित्रैः सह वर्तमान:। ॥३९॥

जो मनुष्य दुःख, उसकी उत्पत्ति और उसके निरोध को ठीक-ठीक जानता है, वह कल्याण-कारी मित्रों के साथ रहता हुआ आर्य मार्ग से चलकर शान्ति प्राप्त करता है। ॥३९॥

यो व्याधितो व्याधिमवैति सम्यग् व्याधेर्निदानं च तदौषधं च। आरोग्यमाप्नोति हि सोऽचिरेण मित्रैरभिज्ञैरुपचर्यमाणः। ॥४०॥

जो रोगी रोग, रोग-निदान और रोग की औषधि को ठीक-ठीक जानता है वह निपुण मित्रों की चिकित्सा में रहकर शीघ्र आरोग्य प्राप्त करता है। ॥४०॥

तद्व्याधिसंज्ञां कुरु दुःखसत्ये दोषेष्वपि व्याधिनिदानसंज्ञां। आरोग्यसंज्ञां च निरोधसत्ये भैषज्यसंज्ञामपि मार्गसत्ये। ॥४१।।

इसलिए दुःख-सत्य को रोग, दोषों को रोग-निदान, निरोध-सत्य को आरोग्य, तथा मार्ग-सत्य को औषध समझो। ॥४१॥

तस्मात्प्रवृत्तिं परिगच्छ दुःखं प्रवर्तकानप्यवगच्छ दोषान् ।निवृत्तिमागच्छ च तन्निरोधं निवर्तकं चाप्यवगच्छ मार्ग। ॥४२॥

इसलिए दुःख को प्रवृति, दोषों को प्रवर्तक (प्रवृत्ति के कारण), निरोध को निवृत्ति और मार्ग को निवर्तक (निवृत्ति का उपाय) समझो। ॥४२॥

शिरस्यथो वासग्नि संप्रदीप्ते सत्यावबोधाय मतिर्विचार्या ।दग्धं जगत्सत्यनयं ह्यदृष्ट्वा प्रदह्यते संप्रति धक्ष्यते च। ॥४३॥

शिर और वस्त्र के जलते रहने पर भी सत्य के समझने में अ्पनी बुद्धि को लगाओ; क्योंकि सत्य को नहीं देखने के कारण यह संसार जला है, संप्रति जल रहा है और जलेगा। ॥४३॥

यदैव य: पश्यति नामरूपं क्षयीति तद्दर्शनमस्य सम्यक् ।सम्यक्च निर्वेदमुपैति पश्यन्नन्दीक्षयाच्च क्षयमेति राग: ॥४४॥

जब मनुष्य नामरूप (पंच-स्कन्ध, corporeality) को नाशवान देखता है तब वह ठीक-ठीक देखता है; और ठीक-ठीक देखता हुआ वह सम्यक निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त होता है और नन्दी (तृष्णा) का नाश होने से उसका राग नष्ट हो जाता है। ।।४४॥

तयोश्च नम्दीरजसोः क्षयेण सम्यग्विमुक्त' प्रवदामि चेतः ।सम्यग्विमुक्तिर्मनसश्च ताभ्यां न चास्य भूयः करणीयमस्ति। ॥४५॥

नन्दी (तृष्णा) और राग का नाश होने से, मैं कहता हूँ, उसके चित्त की सम्यक मुक्ति होती है और इन दोनों से चित्त की सम्यक मुक्ति होने पर उसके लिए और कुछ करने को नहीं रह जाता है। ॥४५॥

यथास्वभावेन हि नामरूपं तध्देतुमेवास्तगमं च तस्य ।विजानतः पश्यत एव चाहं ब्रवीमि सम्यक्क्षयमास्रवाणां ॥४६॥

जो मनुष नामरूप के वास्तविक स्वभाव, उसके कारण और उसके नाश होने को देखता और जानता है, मैं कहता हूँ , उसके आस्रव (चित्त-मल) अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं । ।।४६।।

तस्मात्परं सौम्य विधाय वीरयें शीघ्रं घटस्वास्त्र वसंक्षयाय । दुःखाननित्यांश्च निरात्मकांश्च धातून्विशेषेण परीक्षमाणः । ।।४७।।

इसलिए, हे सौम्य, खूब उद्योग करके आस्रवों को नष्ट करने की चेष्टा करो और दुःखरूप अनित्य तथा अनात्म धातुओं की विशेष रूप से परीक्षा करो। ॥४७॥

धातून्हि षड् भूसलिलानलादीन्सामान्यतः स्वेन च लक्षणेन । अवैति यो नान्यमवैति तेभ्यः सोऽत्यन्तिकं मोक्षमवैति तेभ्यः। ॥४८॥

जो मनुष्य पृथ्वी, जल, अग्नि आदि छः धातुओं को सामान्य रूप से और विशिष्ट रूप से समझता है और जो उनको छोड़कर और कुछ नहीं है ऐसा समझता है, वह उनसे होने वाली आत्यन्तिक मुक्ति को समझता है। ॥४८॥

Sunday, January 17, 2021

बोधिसत्व का चिन्तन-नैरात्म

बोधिसत्त्व के दर्शन चिन्तन को एक शब्द द्वारा व्यक्त किया जा सकता हैं और वह शब्द है 'प्रज्ञा'। प्राणियों एवं वस्तुओं के विषय में यथाभूत ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा दु:ख का नाश करके सुख प्रदान करती हैं, यह बोधिदात्री एवं मुक्तिदायिनी हैं। 

अनित्यता का ज्ञान होना प्रज्ञा का प्रथम लक्षण हैं। संसार परिवर्तनशील है, इसके सभी प्राणी एवं सारी वस्तुएँ अनित्य हैं। इस तथ्य का बोध प्रज्ञा की पहचान हैं। यह शरीर आत्मा रहित हैं। सभी प्राणी और सभी धर्म अनात्मक एवं निरात्मक हैं। यहाँ कोई चीज़ ऐसी नहीं हैं जिसको कोई व्यक्ति 'अपना', 'मेरा' अथवा 'मैं' कह सकता हैं। आत्मा की सत्ता का विचार एक भयंकर भ्रान्ति हैं, एक महामारी हैं, जिससे प्राणी पीड़ित एवं परेशान रहते हैं। यही विचार अहंकार एवं ममकार का मूल स्रोत हैं और सारे क्लेश इसी विचार से उत्पन्न होते हैं। निर्वाण अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आत्मवाद से छुटकारा होना परमावश्यक हैं। आपके सामने दो विकल्प हैं आत्मा और मोक्ष। दोनो में से आप एक को चुन सकते हैं। संसार में भ्रमण करना और दु:ख-सुख भोगना पसन्द हैं तो आत्मवाद अपनाइये, अकथनीय, अचिन्तनीय एव निरविकल्प शान्ति का साक्षात्कार करना पसन्द हैं तो मोक्ष की गवेषणा कीजिये। मोक्ष में न तो आत्मा हैं और न शरीर। जहां आत्मा का ही अस्तित्व नही रहता वहा परमात्मा का विचार उत्पन्न नहीं हो सकता हैं। अतएव सुख और दु:ख, आत्मा और परमात्मा, जीवन और जगत, कर्म और फल, पुण्य और पाप, मैं और आप, संसार और निर्वाण आदि के भेद मोक्ष में नहीं होते हैं। नैरात्म्य-दर्शन ही प्रज्ञा हैं। यही बोधिसत्व के चिन्तन का हृदय हैं। नैरात्म्य को शुन्यता भी कहते हैं क्योंकि वह विकल्पों, प्रपन्चो, धारणाओं एवं गुणों से सर्वथा मुक्त हैं। नैरात्म्य अथवा शून्य कोई चीज़ या वस्तु नहीं हैं, उसमें या उसकी कोई चीज़ या वस्तु भी कहते हैं। उसको आप 'कुछ' भी नहीं कह सकते हैं। कुछ भी कहना प्रपन्च करना हैं, वह मन व वाणी का विषय नहीं हैं। सभी मतो, दृष्टियों, विचारों, कल्पनाओ, रूपों एवं संकेतो का अतिक्रमण करके यह नैरात्म्य अथवा शून्य अथवा परमार्थ नामो से अभिहित निर्वाण अथवा मोक्ष सिद्ध होता हैं। 

प्रश्न उठता हैं जब आदमी की ही सत्ता नहीं हैं तो निर्वाण किसका होता हैं? यह प्रश्न अविद्या, अहंकार एवं भय के मिश्रण से हुई स्थिति में उत्पन्न होता हैं। 'मेरी आत्मा', 'मेरी आत्मा की रक्षा', 'मेरी आत्मा की मुक्ति आदि इस प्रकार के विचार अविद्या की उपज हैं। 

Tuesday, January 5, 2021

सौन्दरनन्द, आदि-प्रस्थान

सौन्दरनन्द (महाकाव्य) चतुर्दश सर्ग, आदि-प्रस्थान 

अथ स्मृतिकवाटेन पिधायेन्द्रियसंवरं । भोजने भव मात्राज्ञो ध्यानायानामयाय च ।।१॥

स्मृतिरूपी किवाड़ से इन्द्रियरूप बांध को बन्द करके ध्यान और आारोग्य के लिए भोजन की मात्रा जानो ॥१॥ 

प्राणापानौ निगृह्रति ग्लानिनिद्रे प्रयच्छति । कृतो ह्यत्यर्थमाहारो विहन्ति च पराक्रमं ॥२॥

यदि अधिक भोजन किया जाय तो वह प्राण-वायु और अपान-वायु में रुकावट डालता हैं, आलस्य और नींद लाता हैं, तथा पराक्रम की हत्या करता हैं ।।२॥

यथा चात्यर्थमाहारः कृतोंऽनर्थाय कल्पते ।उपयुक्तस्तथात्यल्पो न सामर्थ्याय कल्पते ॥३॥

जिस प्रकार अधिक भोजन करने से अनर्थ होता हैं उसी प्रकार अत्यल्प भोजन करने से शक्ति नहीं होती हैं॥३॥

आचयं द्युतिमुत्साहं प्रयोगं बलमेव च। भोजनं कृतमत्यल्पं शरीरस्यापकर्षनि ॥४॥

अत्यल्प भोजन करने से शरीर की पुष्टि, कान्ति, उत्साह, प्रयोग और बल का र्हास होता हैं।।४॥

यथा भारेण नमते लघुनोन्नमते तुला। समातिष्ठति युक्तेन भोज्येनेयं तथा तनुः ॥५॥

जैसे अधिक भार से तुल्ला (पलढ़ा) मुकरती हैं, हलके भार से खठती हैं और उचित भार से समान रहती हैं उसी प्रकार (अधिक अल्प एवं युक्त) आहार से यह शरीर (क्रमशः भारी, क्षीण और ठीक होता हैं) ॥५॥

तस्मादभ्यवहर्तव्यं स्वशक्तिमनुपश्यता । नातिमात्रं न चात्यल्पं मेयं मानवशादपि ॥६॥

इस लिए अपनी शक्ति को देखते हुए भोजन करना चाहिए; मान के वशीभूत होकर भी न बहुत अधिक और न बहुत कम ही खाना (मापना, काढना) चाहिए ॥६॥

अत्याक्रान्तो हि कायाग्निर्गुरुणान्नेन शाम्यति । अवच्छन्न इवाल्पोऽग्निः सहसा महतेन्धसा ॥७॥

शरीर की अग्नि अन्न के भार से दबकर ऐसे शान्त हो जाती हैं जैसे थोड़ी सी आग इठात ही जलावन के बोझ से ढककर बुझ जाती हैं।।७।।

अत्यन्तमपि संहारो नाहारस्य प्रशस्यते । अनाहारो हि निर्वाति निरिन्धन इवानलः ॥८॥

भोजन बिल्कुल छोड़ देना भी प्रशंसनीय नहीं हैं; क्योंकि भोजन नहीं करने वाला मनुष्य इन्धन-रहित अग्नि के समान शान्त हो जाता हैं।।८।।

यस्मान्नास्ति विनाहारात्सर्वप्राणभृतां स्थिति:। तश्मा दुष्यति नाहारो विकल्पोऽत्र तु वार्यते ॥९॥ 

क्यों कि भोजन के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता, इसलिए भोजन में दोष नहीं हैं, किंतु भोजन-विशेष (भोजन का चुनाव) निषिद्ध हैं।।९॥

न ह्ये कविषयेऽन्यत्र सज्यन्ते प्राणिन्स्तथा । अविज्ञाते यथाहारे बोद्धव्यं तत्र कारणं ॥१०।।

प्राणी दूसरे किसी एक विषय में उतना आासक्त नहीं होते हैं, जितना कि अज्ञान (विशिष्ट ?) भोजन में, इसका कारण जानना चाहिए ।।१०॥

चिकित्सार्थं यथा धर्त्त व्रणस्याजपनं व्रणी।क्षुद्विधातार्थमाहारस्तद्वत्सेव्यो मुमक्षुणा ॥११॥

घायल आदमी जैसे घाव की चिकित्सा के लिए मलहम लगाता हैं, वैसे ही मुक्ति चाहने वाले को भूख मिटाने के लिए भोजन का सेवन करना चाहिए ।।११।।

भारस्याद्वहनार्थ च रथाक्षोऽभ्यज्यते यथा । भोजनं प्राणयात्रार्थ तद्वद्विद्वान्निषेवेते ॥१२॥

जैसे भार ढोने के लिए रथ के धुरे में चर्बी लगाई जाती हैं वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य जीवन-यात्रा के लिए भोजन का सेवन करता हैं ।।१२॥

समतिक्रमणार्थं च कान्तारस्य यथाध्वगौ । पुत्रमांसानि खादेतां दम्पती भृशदुःखितौ ॥१३॥

जिस प्रकार यात्री दम्पती मरुभूमि को पार करने के लिए अत्यन्त दुःखी होकर अपने पुत्र का मांस खायें, ॥१३॥

एवमभ्यवहर्तव्यं भोजनं प्रतिसंख्यया । न भूषार्थं न वपुषे न मदाय न द्दप्तये ॥१४॥

उसी प्रकार समझ-बूझ कर भोजन करना चाहिए; सौन्दर्य रूप मद या औद्धत्य के लिए नहीं खाना चाहिए ।।१४।।

धारणार्थ शरीरस्य भोजनं हि विधीयते । उपस्तम्भ: पिपतिषोदुर्बलस्येव वेश्मनः ॥१५॥

शरीर धारण करने के लिए ही भोजन विहित हैं, जैसे गिरते हुए दुर्बल घर की रक्षा के लिए उसमें उपस्तम्भ (खम्भा) लगाया जाता हैं ॥१५॥

प्लवं यत्नाद्यथा कश्चिद्वध्नीयाद्वारयेदपि । न तत्भ्नेहन यावत्तु महौधस्योत्तितीर्षया ॥१६॥

जैसे कोई मनुष्य नाव को, उसके स्नेह से नहीं किंतु बाढ़ पार करने की इच्छा से, यत्नपूर्वक बनाये और ढोये भी ॥१६॥

तथोपकरणै: कायं धारयन्ति परीक्षका: । न तत्स्नेहेन  यावत्तु दुःखौघस्य तितीर्षया ॥१७॥ 

वैसे ही दार्शनिक (योगाभ्यासी) लोग शरीर को, उसके स्नेह से नहीं किंतु दुःखरूप बाढ़ को पार करने की इच्छा से, (भोजन आदि आवश्यक) उपकरणों द्वारा धारण करते हैं ॥१७॥

शोचता पीड्यमानेन दीयते शत्रवे यथा । न भक्त्या नापि तर्षेण केवलं प्राणगुप्तये ॥१८॥

जैसे (शत्रु द्वारा) पीड़ित होकर कोई मनुष्य (द्रव्य आदि) जो कुछ शत्रु को देता हैं, वह भक्ति से नहीं, इच्छा से (या किसी वस्तु की तृष्णा से) नहीं, किंतु केवल प्राण-रक्षा के लिए ही शोकपूर्वक देता हैं, ॥१८॥

योगाचारस्तथाहारं शरीराय प्रयच्छति । केवलं क्षूद्विघातार्थ न रागेण न भक्तये। ॥१९॥॥

वैसे ही योगाभ्यासी मनुष्य शरीर को जो आहार देता हैं वह अनुराग या भक्ति से नहीं, किंतु केवल भूख मिटाने के लिए ही देता हैं। ॥१९॥

मनोधारणया चैव परिणाम्यात्मवानहः। विधूय निद्रां योगेन निशामप्यतिनामयेः। ॥२०।।

संयतात्म होकर दिवस को मनोनिग्रह में बिताओ और निद्रा को दूर करके रात्रि को भी योगाभ्यास में बिताओ। ॥२०॥

हृदि यत्संज्ञिनश्चैव निद्रा प्रादुर्भवेत्तव । गुणवत्संज्ञितां संज्ञां तदा मनसि मा कृथाः। ॥२१॥

संज्ञा (चेतना, होश) के रहते यदि तुम्हारे हृदय में निद्रा का प्रादुर्भाव हो तो उस संज्ञा को अपने मन में उत्तम संज्ञा मत समझो। ॥२१॥

धातुरारम्भधृत्योश्च स्थामविक्रमयोरपि । नित्यं मनसि कार्यस्ते बाध्यमानेन निद्रया ॥२२।।

नींद से पीड़ित होने पर आरम्भ (उद्योग) और धैर्य तथा शक्ति और पराक्रम के तत्वों का अपने मन में चिन्तन करो ॥२२॥

आम्नातव्याश्च विशदं ते धम्मा ये परिश्रुताः। परेभ्यश्चोपदेष्टव्याः संचिन्त्याः स्वयमेव च ॥२३।।

जिन धर्मों को तुमने सुना हैं उनका साफ साफ पाठ करो, दूसरों को उपदेश दो और स्वयं भी चिन्तन करो। ॥२३॥

प्रक्लेद्यभ्दिर्वदनं विलोक्याः सर्वतो दिशः। चार्या दृष्टिश्च तारासु जिजागरिषुणा सदा ॥२४॥

सदा जागरण की इच्छा करने वाले को जल से मुख भिगोना चाहिए, चारों ओर दृष्टि-पात करना चाहिए और ताराओं की ओर देखना चाहिए ॥२४।।

अन्तर्गतैरचपलैवंशस्थायिभिरिन्द्रियैः । अविक्षप्तेन मनसा चंक्रम्यस्वास्व वा निशि ॥२५॥

इन्द्रियों को भीतर की ओर (अन्तर्मुख), स्थिर और वश में करके शान्त चित्त से चंक्रमण (चहल कदमी) करो या बैठे रहो ।।२५॥

भये प्रीतौ च शोके च निद्रया नाभिभूयते ।तस्मान्निद्राभियोगेषु सेवितव्यमिदं त्रयं ॥२६॥

भय, प्रीति और शोक में मनुष्य निद्रा से पीड़ित नहीं होता है, इसलिए निद्रा का आक्रमण होते समय इन तीनों का सेवन करना चाहिए ॥२६॥

भयमागमनान्मृत्योः प्रीतिं धर्मपरिग्रहात् ।जन्मदुःखादपर्यंताच्छोकमागन्तुमर्हसि ॥२७॥

मृत्यु आ रही हैं इस प्रकार (मृत्यु से) भय, धर्म ग्रहण कर रहा हूँ इस प्रकार (धर्म से) प्रीति और जन्म का दुःख अनन्त हैं; इस प्रकार (जन्म के लिए) शोक करना चाहिए ॥२७৷।

एवमादिः क्रमः सौम्य कार्यो जागरणं प्रति । वन्ध्यं हि शयनादायुः कः प्राज्ञः कर्तुमर्हति ॥२८।।

जागरण के लिए, हे सौम्य, इस और ऐसे ही क्रम का सेवन करना चाहिए; क्योंकि कौन ज्ञानवान् मनुष्य सोकर पनी आयु को निष्फल करेगा ? ॥२८।।

दोषव्यालानतिक्रम्य व्यालान गृहगतानिव । क्षमं प्राज्ञस्य न स्वप्तुं निस्तितीर्षोर्महद्भयं ॥२९॥

जैसे घर में रहने वाले साँपों की अवहेलना करके समझदार आदमी के लिए सोना उचित नहीं हैं, वैसे ही दोषरूपी सर्पों की उपेक्षा करके महाभय को पार करने की इच्छा करने वाले ज्ञानी के लिए सोना उचित नहीं हैं। ॥२९॥

प्रदीप्ते जीवलोके हि मृत्युव्याधिजराग्रिभिः । क: शयीत निरुद्वेगः प्रदीप्त इव वेश्मनि। ॥३०।।

जैसे जलते हुए घर में कोई भी आदमी निश्चिंत होकर नहीं सो सकता, वैसे ही मृत्यु, व्याधि और जरारूपी अग्नियों से प्रज्वलित जीव-लोक में कौन निर्भय होकर सोयेगा ? ॥३०॥

तस्मात्तम इति ज्ञात्वा निद्रां नावेष्टुमर्हसि । अप्रशान्तेषु दोषषु सशस्त्रेष्विव शत्रुषु ॥३१॥

इसलिए जब तक शस्त्र-युक्त शत्रुं के समान तुम्हारे दोष शान्त नहीं हो जाते तब तक निद्रा को मानसिक अन्धकार समझकर अपने को उसके वशीभूत न होने दो। ॥३१॥

पूर्व यामं त्रियामायाः प्रयोगेणातिनाम्य तु । सेव्या शय्या शरीरस्य विश्रामार्थ स्वतन्त्रिणा ॥३२॥

तीन प्रहर वाली रात्रि के प्रथम प्रहर को योगाभ्यास में बिताकर, (दूसरे प्रहर में) शरीर के विश्राम के लिए सावधान होकर शस्या का सेवन करो ।।३२।।

दक्षिणेन तु पार्श्वेन स्थितयालोकसंज्ञया । प्रबोधं हृदये कृत्वा शयीथा: शान्तमानसः॥३३॥

दाई करवट से, आलोक (प्रकाश) की भावना करते हुए, हृदय में ज्ञान (होश) रखकर, शान्तचित्त होकर सोओ ।।३३॥

यामे तृतीये चोत्थाय चरन्नासीन एव वा । भूयो योगं मनःशुद्धौ कुर्वीथा नियतेन्द्रियः ॥३४॥

और तीसरे पहर में उठकर, टहलते हुए या बैठे हुए ही, संयतेन्द्रिय होकर मानसिक शुद्धि में पुनः योगारूढ़ हो जाओ ॥३४।।

अथासनगतस्थानप्रेक्षतव्याहृतादिषु । सं?जानन् क्रियाः सर्वाः स्मृतिमाधातुमर्हसि ॥३५॥

बैठते, चलते, खड़ा होते, देखते, बोलते और ऐसे ही दूसरे कार्य करते समय, अपने सभी कार्यो को अच्छी तरह जानते हुए (अनुभव करते हुए), अपनी स्मृति (जागरूकता) को स्थिर रखो ॥३५॥

द्वाराध्यक्ष इव द्वारि यस्य प्रणिहिता स्मृतिः । धर्षयन्ति न तं दोषाः पुरं गुप्तमिवारय: ॥३६॥

द्वार पर नियुक्त द्वाराध्यक्ष के समान जिसकी स्मृति स्थिर हैं उसके ऊपर दोषों का आक्रमण नहीं होता हैं जैसे कि रक्षित नगर पर शत्रुओं का आक्रमण नहीं होता हैं। ॥३६॥

न तस्योत्पद्यते क्लेशो यस्य कायगता स्मृतिः । चित्तं सर्वास्ववस्थासु बालं धात्रीव रक्षति ॥३७॥

उस मनुष्य को कोई क्लेश (दोष) नहीं हो सकता जिसकी काय-गत (शरीर में लगी हुई) स्मृति सभी अवस्थाओं में उसके चित्त की रक्षा करती हैं, जैसे धाई बालक की रक्षा करती हैं। ॥३७॥

शरव्यः स तु दोषाणां यो हीन: स्मृतिवर्मणा। रणस्थः प्रतिशत्रूणो विहीन इव वर्मणा ॥३८॥

दोषों का लक्ष्य वही आदमी होता हैं जो स्मृतिरूपी कवच से हीन हैं, जैसे प्रतिपक्षी शत्रुओं का लक्ष्य वही योद्धा होता हैं जो कवच से रहित हैं ॥३८॥

अनाथं तन्मनो ज्ञेयं यत्स्मृतिर्नाभिरक्षति । निर्णेता दृष्टरहितो विषमेषु चरन्निव ॥३९॥

स्मृतिद्वारा अरक्षित चित्त को वैसे ही अनाथ समझना चाहिए, जैसे पथ-प्रदर्शक के बिना विषम स्थलों पर चलता हुआ दृष्टि-रहित मनुष्य असहाय होता हैं ॥३९॥

अनर्थेषु प्रसक्ताश्च स्वार्थेभ्यश्च पराङ्मुखाः। यद्भये सति नोद्विग्न: स्मृतिनाशोऽत्र कारणं ॥४०॥

लोग अनर्थों में आसक्त होते हैं, स्वार्थों (अपने उत्तम लक्ष्य) से विमुख रहते हैं और भय के रहते उद्विग्न (भयभीत) नहीं होते हैं, इसका कारण हैं स्मृति-विनाश ॥४०॥

स्वभूमिषु गुणाः सर्वे ये च शीलादयः स्थिताः । विकीर्ण इव गा गोपः स्मृतिस्ताननुगच्छति ॥४१॥

स्मृति अपने अपने क्षेत्र में रहने वाले शील आदि सभी सद्गुणों का अनुसरण करती हैं, जैसे कि गोप बिखरी हुई गौओं का पीछा करता हैं। ॥४१॥

प्रनष्टममृतं तस्य यस्य विप्रसृता स्मृतिः । हस्तस्थममृतं तस्य यस्य कायगता स्मृतिः ॥४२॥

जिसकी स्मृति बहकी हुई हैं उसका अमृत (श्रेय) नष्ट हो गया। जिसकी स्मृति उसके शरीर (काया) में लगी हुई है उसके हाथ में अमृत हैं। ॥४२॥

आयों न्यायः कुतस्तस्य स्मृतिर्यस्थ न विद्यते । यस्यार्यों नास्ति च न्यायः प्रनष्टस्तस्य सत्पथः ॥४३॥

जिसको स्मृति नहीं हैं उनको आर्यं न्याय (सत्य) कहाँ से प्राप्त होगा? और जिसको आर्य न्याय (सत्य) प्राप्त नहीं हैं उसका सन्मार्ग नष्ट हो गया ॥४३॥

प्रनष्टो यस्य सन्मार्गो नष्टं तस्यामृतं पदं । प्रनष्टममृतं यस्य स दुःखान्न विमुच्यते ॥४४॥

जिसका सन्मार्ग नष्ट हो गया उसका अमृत पद (निब्बाण पद) नष्ट हो गया। जिसका अमृत पद नष्ट हो गया वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता ॥४४॥

तस्माच्चरन् चरोऽम्मीति स्थितोऽस्मीति च धिष्ठित: ।एवमादिषु कालेषु स्मृतिमाधातुमर्हसि ॥४५॥

इसलिए चलता हुआ 'चल रहा हूँ' खड़ा हुआ 'खड़ा हूं, ऐसे ही दूसरे कार्य करते समय अपनी स्मृति बनाये रहो ॥४५॥

योगानुनोमं विजनं विशब्दं शय्यासनं सौम्य तथा भजस्व । कायस्य कृत्वा हि विवेकमादौ सुखोऽधिगन्तुं मनसो विवेक: ॥४६॥

हे सौम्य, योग के अनुकूल निर्जन और निःशब्द शय्या और आसन का सेवन करो । क्योंकि पहले शरीर को एकान्त में कर लेने पर मानसिक एकान्त (एकाग्रता) आसानी से प्राप्त हो सकता हैं ।I४६॥

अलब्धचेत: प्रशमः सरागो यो न प्रचारं भजते विविक्तं ।स क्षण्यते ह्यप्रतिलब्धमार्गश्चरन्निवोर्व्यो बहुकण्टकार्या ॥४७॥

जो राग से मुक्त हैं, जो एकान्त में नहीं रहता हैं, और जिसने मानसिक शान्ति नहीं पाई हैं; वह मार्ग नहीं पा सकने के कारण कण्टकाकीर्ण भूमि पर चलते हुए के समान कष्ट पाता हैं ॥४७॥ 

अदृष्टतत्वेन परीक्षकेण स्थितेन चित्रे विषय प्रचारे । चित्तं निषेद्धुं न सुखेन शक्यं कृष्टादको गौरिव सस्यमध्यात् ॥४८॥

जिस परीक्षक (जिज्ञासु, योगी, दार्शनिक) ने तत्त्व का दर्शन नहीं किया हैं और जो विविध विषयों के बीच पड़ा हुआ वह अपने चित्त को आसानी से नहीं रोक सकता हैं, जैसे खेती खाने (चरने) वाले सांड को फसल के बीच से आसानी से नहीं हटाया जा सकता ॥४८॥

अनीर्यमाणस्तु यथानिलेन प्रशान्तिमागच्छति चित्रभानु: ।अल्पेन यत्नेन तथा विविक्तेष्वघट्टितं शान्तिमुपैति चेतः ॥४९॥

जिस प्रकार हवा से नहीं प्रेरित होती हुई अग्नि शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार एकान्त में प्रकम्पनरहित चित्त अल्प यत्न से शान्ति को प्राप्त होता हैं ॥४९॥

क्वचिद्भुक्त्वा यत्तद्वसनमपि यत्त्परिहितो वसन्नात्मारामः क्वचन विजने योऽभिरमते । कृतार्थ: स ज्ञेयः शमसुखरसज्ञः कृतमतिः परेषां संसर्ग परिहरति यः कण्टकभिव ॥५०॥

जहाँ कहीं भी जो-सो खाकर, जैसा-तैसा कपडा पहनकर, और जहाँ-कहीं भी रहकर जो आत्म-तुष्ट रहता हैं, निर्जन स्थान में रमण करता हैं और दूसरों के संसर्ग से ऐसे बचता हैं जैसे काँटे से, वह बुद्धिमान शान्ति-सुख के रस को जानता हैं और उसे ही कृतार्थ समझना चाहिए ॥५०॥

यदि द्वन्द्वारामे जगति विषयव्यग्रहृदये विविक्ते निर्द्वन्द्वो विहरति कृती शान्तहृदय: । ततः पीत्वा प्रज्ञारसममृतवत्तृप्तह्दयो विविक्तः संसक्तं विषयकृपणं शोचति जगत् ॥५१॥

(सुख-दुःख आदि) द्वन्द्वों में आनन्द पाने वाले एवं विषयों से व्यग्र हृदय वाले जगत् में यदि द्वन्द्व-रहित और शान्तहृदय होकर कोई पवित्रात्म एकान्त में विहार करता हैं, तो वह अमृत के समान प्रज्ञा-रस का पान कर तृप्तहृदय और अनासक्त हो जाता हैं तथा आसक्ति में पड़े हुए एवं विषयों के लिए आतुर जगत् के लिए शोक करता हैं॥५१॥

वस्रव्शून्यागारे यदि सततमेकोऽभिरमते यदि क्लेशोत्पादैः सह न रमते शत्रुभिरिव। चरन्नात्मारामो यदि च पिबति प्रीतिसलिलं ततो भुङ्क्ते श्रेष्ठं त्रिदशपतिराज्यादपि सुखं ॥५२॥

यदि वह सूने घर में सदा अकेला ही रमण करता हैं, यदि क्लेशों (दोषों) के कारणों से ऐसे दूर रहता हैं जैसे शत्रुओं से और यदि आत्म-तुष्ट रहता हुआ प्रीति-जल का पान करता हैं तो वह देवेन्द्र के राज्य से भी उत्तम सुख का भोग करता हैं ॥५२॥

सौन्दरनन्दे महाकाव्य आदिप्रस्थानो नाम चतुर्दश: सर्गः

सौन्दरनन्द महाकाव्य में 'आदि-प्रस्थान "नामक चतुर्दश सर्ग समाप्त ।


सौन्दरनन्द-महाकाव्य, आज्ञा-व्याकरण, सर्ग १८

सौन्दरानन्द महाकाव्य, अष्टादश (१८ वां) सर्ग, आज्ञा-व्याकरण (उपदेश): अथ द्विजो बाल इवाप्तवेदः क्षिप्रं वणिक् प्राप्त इवाप्तलाभः । जित्वा च रा...