आज्ञा-व्याकरण (उपदेश):
अथ द्विजो बाल इवाप्तवेदः क्षिप्रं वणिक् प्राप्त इवाप्तलाभः । जित्वा च राजन्य इवारिसैन्यं नन्दः कृतार्थो गुरुमभ्यगच्छत् ॥१॥
तथा जैसे द्विज-बालक वेदाध्ययन समाप्त करके, वणिक तुरंत लाभ उठाकर, क्षत्रिय (राजा) शत्रु-सेना को जीतकर (अपने गुरु लाभ या उपदेशक के समीप) पहुँचता है, वैसे ही नन्द कृतार्थ होकर अपने गुरु (बुद्ध) के समीप गया । ॥१॥
द्रष्टुं सुखं ज्ञानसमाप्तिकाले गुरुहि शिष्यस्य गुरोश्च शिष्यः । परिश्रमस्ते सफलो मयीति यतो दिदृक्षास्य मुनौ बभूव ॥२॥
विद्या-समाप्ति के समय शिष्य के लिए गुरु का दर्शन और गुरु के लिए शिष्य का दर्शन आनन्द-दायक होता है । 'आपने मेरे लिए जो परिश्रम किया वह सफल हुआ' ऐसा सोचकर उसने मुनि (बुद्ध) का दर्शन करना चाहा । ॥२॥
यतो हि येनाधिगतो विशेषस्तस्योत्तमांसोऽर्हति कर्तुमिड्यां । आर्यः सरागोऽपि कृतज्ञभावात्प्रक्षीणमानः किमु वीतरागः ॥ ३॥
क्योंकि जिसने जिससे विशेष (लाभ, ज्ञान) प्राप्त किया है उसको उसकी उत्तम पूजा करनी चाहिए । राग-युक्त होने पर भी आर्य पुरुष (आर्याष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने वाला) कृतज्ञ भाव से (अपने गुरु की) पूजा करता है, फिर मान-रहित और राग-रहित व्यक्ति का क्या कहना ? ॥३॥
यस्यार्थकामप्रभवा हि भक्तिस्ततोऽस्य सा तिष्ठति रूढमूला । धर्मान्वयो यस्य तु भक्तिरागस्तस्य प्रसादो हृदयावगाढः । ॥४॥
जिसकी भक्ति अर्थ और काम से उत्पन्न होती है उसकी वह भक्ति बद्धमूल होकर रहती है। किंतु जिसकी भक्ति धर्म का अनुसरण करने से उत्पन्न होती है उसकी श्रद्धा हृदय में जड़ जमाती है ! ॥४॥
काषायवासा: कनकावदातस्तत: स मूर्न्धा गुरवे प्रणेमे । वातेरितः पल्लवताम्रराग: पुष्पोज्ज्वलीश्रीरिव्र कर्णिकार: ॥५॥
तब उस सुनहले रंगवाले काषाय वस्त्रधारी ने मस्तक झुकाकर गुरु को प्रणाम किया, मानो अपने पल्लवों से ताम्रवर्ण तथा अपने फूलों से उज्ज्वल कर्णिकार वृक्ष वायु-प्रकम्पित होकर नीचे झुक रहा हो। ॥५॥
अथात्मनः शिष्यगुणस्य चैव महामुनेः शास्तृगुणस्य चैव । संदशनार्थे स न मानहेतोः स्वां कार्यसिद्धिं कथयांबभूव ॥६॥
तब, अभिमान से नहीं, किंतु अपनी उत्तम शिष्यता तथा महामुनि के उपदेश की उत्कृष्टता दिखलाने के लिए, उसने अपनी कार्यसिद्धि कह सुनाई:-॥६॥
यो दृष्टिशल्यो हृदयावगाढः प्रभो भृशं मामतुदत्सुतीक्ष्णः । स्वद्वाक्यसंदंशमुखेन मे स समुद्धृ तः शल्यहृतेव शल्यः ।।७।।
" जो कुदृष्टिरूपी तीक्ष्ण शल्य, हे प्रभो मेरे हृदय में गढ़ा हुआ था और मुझे अत्यन्त पीड़ित कर रहा था वह अपके वाक्यरूपी संदश (संड़सी) द्वारा बाहर खींच लिया गया, जैसे शल्य निकालने वाले (यंत्र या वैद्य) के द्वारा शल्य बाहर निकाला जाता है । ॥७॥
कथंकथाभावगतोऽस्मि येन छिन्न: स निःसंशय संशयो मे । त्वच्छासनात्सत्पथमागतोऽस्मि सुदेशिकस्येव पथि प्रनष्टः ॥८॥
हे संशय-रहित, वह संशय, जिसके कारण मैं संदेह-सूचक प्रश्न किया करता था, नष्ट हो गया । आपके उपदेश से मैं सन्मार्ग पर आ गया हूँ, जैसे कि रास्ता भूला हुआ आदमी पथ-प्रदर्शक के उपदेश से ठीक रास्ते पर आ जाता है। ॥८॥
यत्पीतमास्वादवशेन्द्रियेण दर्पेण कन्दर्पविषं मयासीत् । तन्मे हतं त्वद्वचनागदेन विषं विनाशीव महागदेन ॥९॥
आस्वाद के वशीभूत होकर मैंने मद से जिस कामरूपी विष को पिया था वह आपके वचनरूपी औषधि के द्वारा नष्ट हो गया, जैसे कि प्राण-विनाशक विष महौषधि (के सेवन) से नष्ट हो जाता है । ॥९॥
क्षयं गतं जन्म निरस्तजन्मन्सद्धर्मचर्यामुषितोऽस्मि सम्यक् । कृत्स्नं कृतं मे कृतकार्य कार्ये लोकेषु भूतोऽस्मि न लोकधर्मा ॥१०॥
हे जन्म-मुक्त, मैं जन्म से मुक्त हो गया और अच्छी तरह सद्धर्म का आचरण कर रहा हूँ हे कृतकार्य, मैंने सारा कार्य कर लिया । यद्यपि मैं लोक (संसार) में हूँ, तो भी लोक-धर्म से लिप्त नहीं हूँ। ॥१०॥
मैत्रीस्तनीं व्यञ्जनचारुसास्नां सद्धर्मदुग्धां प्रतिभानशृङ्गां । तवास्मि गां साधु निपीय तृप्तस्तृषेव गामुत्तम वत्सवर्ण: ॥११॥
मैत्री जिसके स्तन हैं, स्पष्ट अभिव्यक्ति जिसका गलकम्बल (गाय-बैल के गले में लटकने वाला चमड़ा) है, सद्धर्म जिसका दूध है और प्रतिभान (ज्ञान) जिसके सींग हैं ऐसी आपकी वाणीरूपी गाय (के दूध) को पीकर मैं तृप्त हो गया हूँ, जैसे भूख से व्याकुल बछड़ा, हे उत्तम, अपनी गाय (के दूध) को पीकर तृप्त हो जाता है । ॥११॥
यत्पश्यतश्चाधिगमो ममायं तन्मे समासेन मुने निबोध । सर्वज्ञ कामं विदितं तवैतत्स्वं तूपचारं प्रविवक्षुरस्मि । ॥१२॥
मुझ में जिस दृष्टि के होने से मैंने यह (अर्हत्व) प्राप्त किया है उसको, हे मुने, संक्षेप से सुनिए । हे सर्वज्ञ, आपको तो यह विदित ही है, तो भी मैं अपना उपचार कहना चाहता हूँ । ॥१२॥
अन्येऽपि सन्तो विमुमुक्षवो हि श्रुत्वा विमोक्षाय नयं परस्य । मुक्तस्य रोगादिव रोगवन्तस्तेनैव मार्गेण सुखं घटन्ते ॥१३॥
क्योंकि मुक्ति चाहने वाले दूसरे लोग भी दूसरे के (द्वारा अनुसृत) मोक्ष-मार्ग को सुनकर उसी मार्ग से सुख-पूर्वक प्रयत्न करते हैं, जैसे कि रोगी मनुष्य रोग से मुक्त हुए के मुक्ति-उपाय को सुन कर उसी उपाय से (स्वस्थ होने के लिए) यत्न करते हैं । ॥१३॥
उर्व्यादिकान् जन्मनि वेद्मि धातून्नात्मानमुर्व्यादिषु तेषु किंचित् । यस्मादतस्तेषु न मेऽस्ति सक्तिर्बहिश्च कायेन समा मतिर्मे ॥१४॥
मैं जानता हूँ कि जन्म (के मूल) में पृथ्वी आदि धातु विद्यमान हैं और उन पृथ्वी आदि धातुओं में कोई आत्मा नहीं है; इसलिए उनमें मेरी आसक्ति नहीं है । शरीर को और शरीर के बाहरी पदार्थ को मैं समान समझता हूँ। ॥ १४॥
स्कन्धाश्च रूपप्रभृतीन्दशार्धान्पश्यामि यस्माञ्चपलानसारान् । अनात्मकांश्चव वधात्मकांश्च तस्माद्विमुक्तोऽस्म्यशिवेभ्य एभ्यः॥१५॥
क्योंकि मैं रूप आदि पञ्च-स्कन्धों* को चञ्चल, असार, अनात्म और विनाशक (अकुशल) देखता हूँ, इसलिए मैं इन अमङ्गल वस्तुओं से अलग हो गया हूँ । ॥१५॥
(जीव यह रुप, संज्ञा, संस्कार, वेदना और विज्ञान इस पंच-स्कन्ध* का जोड़ हैं)
यस्माच्च पश्याम्युदयं व्ययं च सर्वास्ववस्थास्वहमिन्द्रियाणां । तस्मादनित्येषु निरात्मकेषु दुःखेषु मे तेष्वपि नास्ति संगः॥१६।।
मैं देखता हूँ कि सब अवस्थाओं में इन्द्रियों का उदय और व्यय होता है, इसलिए इन अनित्य, अनात्म और दुःखरूप इन्द्रियों में मेरी आसक्ति नहीं है। ॥१६॥
यतश्चलाकं समजन्मनिष्ठं पश्यामि नि:सारमसच्च सर्वे । अतो धिया मे मनसा विबद्धमस्मीति मे नेञ्जितमस्ति येन ॥१७॥
क्योंकि संसार को जन्मशील और मरणशील तथा सब पदाथों को असार और असत् (आत्मा से रहित) देखता हूँ .........जिससे कि मुझ में अहंभाव (मैं हूँ) यह विकार नहीं रहा । ॥१७॥
चतुर्विधे नैकविधप्रसंगे यतोऽहमाहारविधावसक्तः । अमूर्छितश्चाग्रथितश्च तत्र त्रिभ्यो विमुक्तोऽस्मि ततो भवेभ्यः ॥१८॥
अनेक प्रकार की आसक्तियों सहित चार प्रकार के आहार* में मैं आसक्त, मूढ़ (बेसुध) या बंधा हुआ नहीं हूँ, इसलिए मैं तीन भवों* से मुक्त हूँ। ॥१८॥
(चार प्रकार के आहार*-१) कवलीकार आहार (स्थूल व सूक्ष्म आहार), २) स्पर्शाहार (इन्द्रिय, विषय और विज्ञान के संयोग से उत्पन्न होने वाला आहार), ३) मनस्संचेतनाहार (मानसिक कर्म या विचार वाला आहार)
(तीन भव* हैं- रुप-भव, अरुप-भव, काम-भव)
अनिश्रितश्चाप्रतिबद्धचित्तो दृष्टश्रुतादौ व्यवहारधर्में । यस्मात्समात्मानुगतश्च तत्र तस्माद्विसंयोगगतोऽस्मि मुक्तः ॥१९॥
देखने सुनने आदि के व्यावहारिक धर्म (क्रिया) में मैं आश्रित या आसक्त-चित्त नहीं हूँ, उसमें मेरा चित्त समभाव को प्राप्त हो गया है, इसलिए मैं उससे अलग और मुक्त हो गया हूँ।" ॥१९॥
इत्येवमुक्त्वा गुरुबाहुमान्यात्सर्वेण कायेन स गां निपन्नः । प्रवेरितो लोहितचन्दनाक्तो हैमो महास्तम्भ इवाबभासे ॥२०॥
इतना कहकर गुरु के प्रति सम्मान-भाव होने के कारण उसने सम्पूर्ण शरीर से पृथ्वी का स्पर्श किया, जैसे लाल चन्दन से लिप्त सुवर्ण-निर्मित महास्तम्भ पृथ्वी पर झुक गया हो । ॥२०॥
ततः प्रमादात्प्रमृतस्य पूर्वं श्रुत्वा धृतिं व्याकरणं च तस्य ।
धर्मान्वयं चानुगतं प्रसादं मेघस्वरस्तं मुनिराबभाषे ॥२१॥
तब जो पहले प्रमाद-वश (सन्मार्ग से) भटका था उसका धैर्य, धर्म-व्याख्या, धर्माचरण और श्रद्धा देखकर, मुनि ने मेघ के समान (गम्भीर) वाणी में कहा:- ॥२१॥
उत्तिष्ठ धर्में स्थित शिष्यजुष्टे किं पादयोर्मे पतितोऽसि मूर्ध्रा । अभ्यर्चनं मे न तथा प्रणामो धर्में यथैषा प्रतिपत्तिरेव ॥२२॥
"हे शिष्य-धर्म में रहनेवाले, उठो। क्यों मेरे चरणों पर मस्तक टेककर पड़े हुए हो ? मुझे प्रणाम करना मेरा वैसा सम्मान नहीं है जैसा कि यह धर्माचरण । ।॥२२॥
अद्यासि सुप्रव्रजितो जितात्मन्नैश्वर्यमप्यात्मनि येन लब्धं । जितात्मनः प्रव्रजनं हि साधु चलात्मनो न त्वजितेन्द्रियस्य ॥२३॥
हे जितात्मन् , आज तुम्हारा प्रव्रजित होना (संन्यास ग्रहण करना) सफल हुआ, जो तुमने अपने उपर ईश्वरत्व (अधिकार) प्राप्त किया। जिसने अपने को जीत लिया है उसी का प्रव्रजित होना उचित है, न कि चंचलात्म अजितेन्द्रिय व्यक्ति का । ॥२३॥
अद्यासि शौचेन परेण युक्तो वाक्कायचेतांसि शुचीनि यत्ते । अतः पुनश्चाप्रयतामसौम्यां यत्सौम्य नो वेक्ष्यसि गर्भशय्यां ॥२४॥
आज तुम आत्यन्तिक शुद्धि से युक्त हो, क्योंकि तुम्हारा शरीर, वचन और चित्त शुद्ध है और क्योंकि, हे सोम्य, अब फिर अपवित्र और असौम्य गर्भ-शय्या में प्रवेश नहीं करोगे। ॥२४॥
अद्यार्थवत्ते श्रुतवच्छु तं तच्छु तानुरूपं प्रतिपद्य धर्म । कृतश्रुतो विप्रतिपद्यमानो निन्द्यो हि निर्वीर्य इवात्तशस्त्रः ॥२५॥
आज तुम्हारा वह शास्त्र-ज्ञान सार्थक है, तुमने शास्त्र के अनुसार धर्माचरण किया, क्यों कि शास्त्र का अभ्यास करके उसके अनुसार आचरण नहीं करने वाला निन्दा का पात्र होता है, जैसे शस्त्र ग्रहण करके उद्योग (युद्ध) नहीं करनेवाले की निन्दा होती है । ॥२५॥
अहो धृतिस्तेऽविषयात्मकस्य यत्त्वं मतिं मोक्षविधावकार्षीः। यास्यामि निष्ठामिति बालिशो हि
जन्मक्षयात्त्रासमिहाभ्युपैति ॥२६॥
अहो तुम्हारा धैर्य ! विषयों से विरक्त होकर तुमने मोक्ष प्राप्ति के उपाय में अपना मन लगाया । 'मेरा अन्त हो जायगा' ऐसा सोचकर मूर्ख मनुष्य जन्म-विनाश से इस संसार में भयभीत होता है । ॥२६॥
दिष्ट्या दुरापः क्षणसंनिपातो नायं कृतो मोहवशेन मोघः । उदेति दुःखेन गतो ह्यधस्तात्कूर्मो युगच्छिद्र इवार्णवस्थः ॥२७॥
(कुछ ही क्षणों का) यह (मनुष्य-जीवन) दुर्लभ है, सौभाग्य से तुमने मोहवश इसे व्यर्थ नहीं बिताया। नीचे (की योनि में) गया हुआ मनुष्य कठिनाई से ऊपर आता है, जैसे कि समुद्र में रहनेवाला कूर्म कठिनाई से जुए (Trap) के छेद में आता है । ॥२७॥
निर्जित्य मारं युधि दुर्निवारमद्यासि लोके रणशीर्षशूरः । शूरोऽप्यशूरः स हि वेदितव्यो दोषैरमित्रैरिव हन्यते यः ॥२८॥
युद्ध में दुर्जय मार (चित्त के दोषों) को जीतकर आज तुम संसार में संग्राम के अग्रभाग में रहनेवाले वीर हो; क्योंकि उस वीर को भी कायर ही समझना चाहिए, जो कि दोषों के द्वारा ऐसे मारा जाता है जैसे कि शत्रुओं के द्वारा । ॥२८॥
निर्वाप्यरागाग्निमुदीर्णमद्य दिष्ट्या सुखं स्वप्स्यसि वीतदाहः । दुःखं हि शेते शयनेऽप्युदारे क्लेशाग्निना चेतसि दह्यमानः ॥२९॥
सौभाग्य से आज तुमने प्रदीप्त रागाग्नि को शान्त किया, अब तुम दाह-रहित होकर सुखपूर्वक सोओगे; क्योंकि जिसका चित्त क्लेशाग्नि से जलता रहता है, वह उत्तम शय्या पर भी कष्टपूर्वक ही सोता है। ॥२९॥
अभ्युच्छितो द्रव्यमदेन पूर्वमद्यासि तृष्णोपरमात्समृद्धः । यावत्सतर्षः पुरुषो हि लोके तावत्समृद्धोऽपि सदा दरिद्रः ॥३०॥
पूर्व में तुम द्रव्य के मद से मत्त थे और आज तृष्णा के नष्ट हो जाने से समृद्धिशाली हो; क्योंकि संसार में जब तक मनुष्य तृष्णा से युक्त रहता है तबतक समृद्धिशाली होने पर भी वह दरिद्र ही रहता है। ॥३०॥
अद्यापदेष्टुं तव युक्तरूपं शुद्धोदनो मे नृपतिः पितेति । भ्रष्टस्य धर्मात्पतृभिर्निपातादश्लाघनीयो हि कुलापदेशः ॥३१॥
आज तुम्हारे लिए यह कहना उचित है कि राजा शुद्धोदन मेरे पिता हैं; क्यों कि जो अपने पूर्वजों के द्वारा पालित धर्म से च्युत हो गया है उसके लिए अपने कुल की घोषणा करना प्रशंसनीय नहीं है। ॥३१॥
दिष्ट्यासि शान्तिं परमामुपेतो निस्तीर्णकान्तार इवाप्तसार: । सर्वो हि संसारगतो भयार्तो यथैव कान्तारगतस्तथैव ॥३२॥
सौभाग्य से तुमने परम शान्ति प्राप्त कर ली है, जैसे मरुभूमि (या बीहड़ वन) को पार करके सम्पत्ति प्राप्त करने वाला मनुष्य शान्ति लाभ करता है; क्योंकि संसार (-चक्र) में पड़े हुए सभी लोग विपत्ति से ऐसे पीड़ित रहते हैं जैसे कि कान्तार में गये हुए लोग । ॥३२॥
आरण्यकं भैक्षचरं विनीतं द्रक्ष्यामि नन्दं निभृतं कदेति । आसीत्पुरस्तात्त्वयि मे दिदृक्षा तथासि दिष्ट्या मम दर्शनीयः॥३३॥
मैं नन्द को कब अरण्य-वासी मिक्षाचारी विनीत और एकान्त-सेवी देखूंगा, पूर्व में मेरी ऐसी ही इच्छा थी, सो सौभाग्य से मैं आज तुम्हें उसी रूप में देख रहा हूँ । ॥३३॥
भवत्यरूपीऽपि हि दर्शनीयः स्वलंकृतः श्रेष्ठतमैर्गुणैः स्वैः । दोषैः परीतो मलिनीकरैस्तु सुदर्शनीयोऽपि विरूप एव ॥३४॥
अपने श्रेष्ठ गुणों से अलंकृत होकर कुरूप मनुष्य भी दर्शनीय हो जाता है। किंतु गंदे दोषों से व्याप्त होकर रूपवान् भी कुरूप हो जाता है। ॥३४॥
अद्य प्रकृष्टा तव बुद्धिमत्ता कृत्स्नं यया ते कृतमात्मकार्य । श्रुतोन्नतस्यापि हि नास्ति बुद्धिर्नोत्पद्यते श्रेयसि यस्य बुद्धिः ॥३५॥
आज तुम्हारी बुद्धि, उत्कृष्ट है, जिसके द्वारा तुमने अपना सारा कार्य कर लिया । विद्वान् होने पर भी यदि किसी को श्रेयस्कर बुद्धि न हो तो उसको बुद्धि नहीं है । ॥३५॥
उन्मीलितस्यापि जनस्य मध्ये निमीलितस्यापि तथैव चक्षुः । प्रज्ञामयं यस्य हि नास्ति चक्षुश्चक्षुर्ने तस्यास्ति सचक्षुषोऽपि ॥३६॥
उसी प्रकार खुली आँखोवाले लोगों के बीच बन्द आँखोंवाले को भी दृष्टि हो सकती है; क्योंकि जिसको प्रज्ञा-चक्षु नहीं है उसको चक्षु होने पर भी (वास्तव में) चक्षु नहीं है । ॥३६॥
दुःखप्रतीकारनिमित्तमार्तः कृष्यादिभिः खेदमुपैति लोकः । अजस्रमागच्छति तच्च भूयो ज्ञानेन यस्याद्य कृतस्त्वयान्तः ॥३७॥
दुःख-प्रतीकार के लिए दुःखी जगत् कृषि आदि कार्य करके श्रान्त होता है और फिर भी उसको वह दुःख सदा होता ही रहता है, जिसका कि तुमने आज ज्ञान द्वारा अन्त कर दिया । ॥३७॥
दुःखं न मे स्यात्सुखमेव मे स्यादिति प्रवृत्तः सततं हि लोकः । न वेत्ति तच्चैव तथा यथा स्यात्प्राप्तं त्वयाद्यासुलभं यथावत् ॥३८॥
"मुझे दुःख न हो, मुझे सुख ही हो, इसके लिए जगत् सदा प्रयत्न करता है; किंतु वह नहीं जानता है कि वह (सुख) कैसे प्राप्त होता है, तुमने आज उस दुर्लभ (वस्तु, सुख) को तत्वतः प्राप्त कर लिया। "॥३८॥
इत्येवमादि स्थिरबुद्धिचित्तस्तथागतेनाभिहितो हिताय । स्तवेषु निन्दासु च निर्व्यपेक्षः कृतान्जलिर्वाक्यमुवाच नन्द: । ॥३९॥
तथागत ने स्थिर-बुद्धि और स्थिर-चित्त नन्द से उसके हित के लिये इस प्रकार बहुत कुछ कहा । तब स्तुति और निन्दा में निरपेक्ष (समान) रहनेवाले नन्द ने हाथ जोड़कर यह वचन कहा- ॥३९॥
अहो विशेषेण विशेषदर्शिन्त्वयानुकम्पा मयि दर्शितेयं । यत्कामपङ्के भगवन्निमग्नस्त्रातोऽस्मि संसारभयादकामः ॥४०॥
"हे विशेष-दर्शिन् , आपने विशेष रूप से मेरे ऊपर यह अनुकम्पा दर्शाई । हे भगवन् , मैं कामरूप कीचड़ में डूबा हुआ था, आपने भवचक्र के भय से मुझे बचा लिया, अब मैं (कामरूपी कीचड़) से मुक्त हो गया हूँ। ॥४०॥
भ्रात्रा त्वया श्रेयसि दैशिकेन पित्रा फलस्थेन तथैव मात्रा। हतोऽभविष्यं यदि न व्यमोक्ष्यं सार्थात्परिभ्रष्ट इवाकृतार्थः ॥४१॥
फल की इच्छा रखनेवाले पिता-स्वरूप तथा माता-स्वरूप, श्रेय के उपदेशक, मेरे (बड़े) भाई आपने यदि अर्थ (लक्ष्य) को प्राप्त किये बिना ही समूह से भटके हुए (यात्री) के समान मुझे न बचा लिया होता तो मैं नष्ट हो गया होता । ॥४१॥
शान्तस्य तुष्टस्य सुखो विवेको विज्ञाततत्तवस्य परीक्षकस्य । प्रहीणमानस्य च निर्मदस्य सुखं विरागत्वमसक्तबुद्धे ॥४२॥
शान्त संतुष्ट तत्वज्ञ और दार्शनिक को आसानी से विवेक होता है और मान-रहित मद-रहित तथा अनासक्त-बुद्धि को आसानी से वैराग्य होता है । ॥४२॥
अथो हि तत्त्वं परिगम्य सम्यङ्निर्धूय दोषानधिगभ्य शान्तिं । स्वं नाश्रमं संप्रति चिन्तयामि न तं जनं नाप्सरसो न देवान् ॥४३॥
तत्त्व को ठीक ठीक जानकर, दोषों को हटाकर और शान्ति को प्राप्त कर अब मुझे अपने (गृहस्थ-) आश्रम, उस सुन्दरी, अप्सराओं या देवताओं की चिन्ता न रही । ॥४३॥
इदं हि भुक्त्वा शुचि शामिक सुखं न मे मनः कांक्षति कामजं सुखं महार्हमध्यन्नमदैवताहृतं दिवौकसो भुक्तवतः सुधामिव ॥४४॥
इस पवित्र शान्ति-सुख को भोगकर अब मेरा मन काम-ज सुख की अभिलाषा नहीं करता है, जैसे अमृत खा करके देवता का चित्त दूसरे (देवेतर) प्राणियों के द्वारा खाये जानेवाले अन्न को, चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो, इच्छा नहीं करता । ॥४४॥
अहोऽन्धविज्ञाननिमीलितं जगत्पटान्तरे पश्यति नोत्तमं सुखं । सुधीरमध्यात्मसुखं व्यपास्य हि श्रमं तथा कामसुखार्थमृच्छति ॥४५॥
अहो ! अज्ञानान्धकार से मुंदी हुई आँखों वाला जगत् पटाच्छादित उत्तम सुख को नहीं देख रहा है; क्योंकि स्थायी अध्यात्म सुख को छोड़कर वह काम-ज सुख के लिए परिश्रम करता है । ॥४५॥
यथा हि रत्नाकरमेत्य दुर्मतिर्विंहाय रत्नान्यसतो मणीन्हरेत् । अपास्य संबोधिसुखं तथोत्तमं श्रमं व्रजेत्कामसुखोपलब्धये ॥४६॥
जैसे कोई दुर्बुध्दि रत्नों की खान में जाये और (उत्तम) रत्नों को छोड़कर असत् मणियों को ले आये, वैसे ही उत्तम बोधि-सुख को छोड़कर काम-सुख की प्राप्ति के लिए परिश्रम करे । ।।४६॥
अहो हि सत्वेष्वतिमैत्रचेतसस्तथागतस्यानुजिघृक्षुता परा। अपास्य यद्ध्यानसुखं मुने परं परस्य दुःखोपरमाय खिद्यसे ॥४७॥
अहो ! प्राणियों के प्रति तथागत का चित्त अत्यन्त मैत्रीपूर्ण है और उनके ऊपर तथागत अत्यन्त अनुग्रह करना चाहते हैं; इसीलिए तो, हे मुने, उत्तम ध्यान-सुख को छोड़कर आप दूसरों का दु:ख दूर करने के लिए श्रम कर रहे हैं। ॥४७॥
मया नु शक्यं प्रतिकर्तमद्य किं गुरौ हितैषिण्यनुकम्पके त्वयि । समुद्धृतो येन भवार्णवादहं महार्णवाच्चूर्णितनौरिवोर्मिभिः ॥४८॥
क्या मैं हितैषी और कारुणिक आप गुरुदेव का कुछ प्रति-उपकार कर सकता हूँ ? आपने मुझे भव सागर से ऐसे निकाला जैसे जिसकी नाव तरंगों से चूर हो रही हो उसको महासागर से निकाला जाय ।" ॥४८॥
ततो मुनिस्तस्य निशम्य हेतुमत्प्रहीणसर्वास्रवसूचकं वचः । इदं बभाषे वदतामनुत्तमो यदर्हति श्रीघन एव भाषितुं ॥४९।।
तब उसके उस हेतुपूर्ण (युक्तियुक्त) वचन को, जिससे कि उसके सब आस्रवों (चित्त-मलों) का नष्ट होना सूचित हो रहा था, सुनकर वक्ता श्रेष्ठ मुनि ने यह वचन कहा जो कि श्रीघन (बुद्ध) ही कह सकते हैं'-॥४९॥
इदं कृतार्थः परमार्थविकृती स्वमेव धीमन्नभिधातुमर्हसि । अतीत्य कान्तारमवाप्तसाधनः सुदैशिकस्येव कृतं महावणिक् ॥५०॥
"है धीमन्, आप कृतार्थ, परमार्थ को जानने वाले तथा पुण्यात्मा ही ऐसा कह सकते हैं, जैसे मरुभूमि को पार करके धन प्राप्त करनेवाला महावणिक ही अपने पथ-प्रदर्शक के उपकार का बखान कर सकता है। ॥५०॥
अवैति बुद्ध नरदम्यसारथिं कृती यथार्हन्नुपशास्तमानसः । न दृष्टसत्योऽपि तथावबुध्यते पृथग्जनः किंबत बुद्धिमानपि ॥५१॥
शान्त-चित्त पुण्यात्मा, जीवन्मुक्त पुरुष, मनुष्य-रुपी घोड़ों के सारथि-स्वरूप बुद्ध को जितना समझता है उतना तो तत्त्वदर्शी भी नहीं समझ सकता है, फिर सांसारिक मनुष्य बुद्धिमान होकर भी कहाँ तक समझ सकेगा ? ॥५१॥
रजस्तमोभ्यां परिमुक्तचेतसर्तवैव चेयं सदृशी कृतज्ञता । रजःप्रकर्षेण जगत्यवस्थिते कृतज्ञभावो हि कृतज्ञ दुर्लभः ॥५२॥
यह ऐसी कृतज्ञता तो तुम्हारे ही अनुरूप है, तुम्हारा चित्त रजस् और तमस् (मल) से मुक्त जो है; क्योंकि हे कृतज्ञ, रजस् की अधिकता से व्याप्त जगत् में कृतज्ञता का भाव दुर्लभ है । ॥५२॥
सधर्म धर्मान्वयतो यतश्च ते
मयि प्रसादोऽधिगमे च कौशलं ।
अतोऽस्ति भूयस्त्वयि मे विवक्षितं
नतो हि भक्तश्च नियोगमर्हसि ॥५३॥
हे समानधर्मा, धर्मान्वय के कारण मुझ में तुम्हारी श्रद्धा है और (लक्ष्य की) प्राप्ति में तुमने कौशल दिखलाया है; अतः मैं पुनः तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ, क्योंकि विनम्र भक्त तुम आदेश के पात्र हो । ॥५३॥
अवाप्तकार्योऽसि परां गति गतो न तेऽस्ति किंचित्करणीयमण्वपि अतःपरं सौम्य चरानुकम्पया विमोक्षयन कृच्छगतान्परानपि ॥५४॥
तुमने अपना कार्य पूरा कर लिया है, तुम परम गति प्राप्त कर चुके हो, तुम्हारे लिए अब अणुमात्र करने को भी शेष नहीं है; अब से, हे सौम्य, कष्ट में पड़े दूसरों को भी मुक्त करते हुए अनुकम्पापूर्वक विचरण करो । ॥५४॥
इहार्थमेवारभते नरोऽधमो विमध्यमस्तूभयलौकिकीं क्रियां । क्रियाममुत्रैव फलाय मध्यमो विशिष्टधर्मा पुनरप्रवृत्तये ॥५५॥
नीच मनुष्य इहलोक के लिए ही कार्यारम्भ करता है, विमध्यम (श्रेणीका) मनुष्य (इहलोक और परलोक) दोनों लोकं के लिए, मध्यम (श्रेणी का) मनुष्य परलोक में फल पाने के लिए ही और विशिष्ट धर्मवाला (उत्तम श्रेणी का) मनुष्य पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए कार्य करता है । ॥५५॥
इहोत्तमेभ्योऽपि मतः स तूत्तमो य उत्तमं धर्ममवाप्य नैष्ठिकं । अचिन्तयित्वात्मगतं परिश्रमं शमं परेभ्योऽप्युपदेष्टुमिच्छति ॥५६॥
इस संसार में वही मनुष्य उत्तम से भी उत्तम माना गया है जो कि उत्तम नैष्ठिक धर्म पाकर, अपने परिश्रम की चिन्ता न करता हुआ दूसरो को भी शम-धर्म (शान्ति) का उपदेश देना चाहता है । ॥५६॥
विहाय तस्मादिह कार्यमात्मनः कुरु स्थिरात्मन्परकार्यप्यथो । भ्रमत्सु सत्त्वेषु तमोवृतात्मसु श्रुतप्रदीपो निशि धार्यंतामयं । ॥५७॥
इसलिए इस संसार में, हे स्थिरात्मन्, अपना कार्य छोड़कर दूसरों का भी कार्य करो । रात्रि-काल में भटकते हुए तमोवृत जीवों के बीच इस ज्ञान-प्रदीप (धर्म-प्रदीप) को धारण करो । ॥५७॥
ब्रवीतु तावत्पुरि विस्मितो जनस्वयि स्थिते कुर्वति धर्मदेशनाः । अहोबताश्चर्यमिदं विमुक्तये करोति रागी यदयं कथामिति ॥५८॥
जब तुम नगर में धर्मोपदेश करते रहोगे तब लोग विस्मित होकर यों कहें-'अहो! यह आश्चर्य ! यह नन्द जो पहले कामासक्त था अब मुक्ति की बात बतला रहा है'। ॥५८॥
ध्रुवं हि संश्रुत्य तव स्थिरं मनो निवृत्तनानाविषयैर्मनोरथैः । वधूर्गुहे सापि तवानुकुर्वती करिष्यते स्त्रीषु विरागिणीः कथा:: ॥५९॥
नाना विषयों की इच्छाओं से मुक्त होकर तुम्हारा मन स्थिर हो गया है, यह सुनकर तुम्हारी वह पत्नी भी निश्चय ही घर में तुम्हारा ही अनुकरण करती हुई स्त्रियों के बीच वैराग्य की कथा कहेगी । ॥५९॥
त्वयि परमधृतौ निविष्टतत्त्वे भवनगता न हि रंस्यते ध्रुवं सा । मनसि शमदमात्मके विविक्ते मतिरिव कामसुखै: परीक्षकस्य ॥६०॥
क्योंकि तुम परम धैर्यवान् तत्व में प्रवेश कर चुके हो, इसलिए निश्चय ही वह घर में आनन्द न पायेगी; जैसे कि चित्त के शान्त, दान्त और विवेकशील (या एकान्त-सेवी) हो जाने पर दार्शनिक (योगी) की बुद्धि काम-सुख में रमण नहीं करती है । ॥६०॥
इत्यर्हतः परमकारुणिकस्य शास्तु
र्मुर्न्धा वचश्व चरणौ च समं गृहीत्वा ।
स्वस्थः प्रशान्तहृदयो विनिवृत्तकार्य:
पार्श्वान्मुने: प्रतिययौ विमदः करीव ॥६१॥
तब परम कारुणिक पूज्य शास्ता (बुद्ध) के वचन और चरणों को एक साथ ही शिरोधार्य करके स्वस्थ चित्त शान्त-हृदय और परिपूर्ण-कार्य नन्द मुनि (बुद्ध) के समीप से मद-मुक्त हाथी के समान चला गया ॥६१॥
भिक्षार्थ समये विवेश स पुरं दृष्टीर्जनस्याक्षिपन्
लाभालाभसुखासुखादिषु समः स्वस्थेन्द्रियो निःस्पृहः। निर्मोक्षाय चकार तत्र च कथां काले जनायार्थिने नैवोन्मार्गगतान्परान्परिभन्नात्मानमुत्कर्षयन् ।।६२।।
उसने भिक्षा के लिए समय पर नगर में प्रवेश किया, वह पुरवासियों की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था, वह हानि-लाभ, दुख-सुख आदि (द्वंद्वों) में समान शान्त-इन्द्रिय और इच्छा-रहित था । वहाँ उसने प्रार्थी लोगों को समय पर मोक्ष की कथा कही; किंतु उसने विपरीत-मार्ग पर चलने वाले दूसरे लोगो की न निन्दा की और न अपनी श्रेष्ठता ही प्रकट की । ॥६२॥
इत्येषा व्युपशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भा कृतिः श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात्कृता। यन्मोक्षात्कृतमन्यदत्र हि मया तत्काव्यधर्मात्कृतं
पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृद्यं कथं स्यादिति ।।६३॥
मोक्ष-धर्म की व्याख्या से परिपूर्ण यह कृति शान्ति प्रदान करने के लिए है, न कि आनन्द देने के लिए; अन्यमनस्क श्रोताओं को आकृष्ट करने के लिए यह (कृति) काव्य-शैली में रची गई है । इसमें मोक्ष-धर्म के अतिरिक्त मेरे द्वारा जो कुछ कहा गया है सो इसे काव्य-धर्म के अनुसार सरस बनाने के लिए ही, जैसे कि तिक्त (कटु) औषधि को पीने लायक बनाने के लिए उसमें मधु मिलाया जाता है । ॥६३॥
प्रायेणालोक्य लोकं विषयरतिपरं मोक्षात्प्रतिहतं
काव्यव्याजेन तत्त्वं कथितमिह मया मोक्षः परमिति । तदुबुध्दूवा शामिकं यत्तवहितमितो ग्राह्म' न ललितं पांसुभ्यो धातुजेभ्यो नियतमुपकरं चामीकरमिति ॥६४॥
ससार को प्रायः विषयानन्द में लीन तथा मोक्ष से विमुख देखकर मोक्ष को ही सब से ऊपर समझते हुए मैंने इसमें तत्व का उपदेश दिया है । ऐसा समझकर सावधानीपूर्वक इसमें से शान्ति-दायक वस्तु को ही, न कि आनन्द-दायक (ललित) वस्तु को, ग्रहण करना चाहिए; जैसे कि लोग धातु के कणों में से उपयोगी सुवर्ण (-कणों, को ही ग्रहण करते हैं। ॥६४॥
सौन्दरनन्दे महाकाव्य आज्ञाव्याकरणो नामाष्टादशः सर्गः।
सौन्दरनन्द महाकाव्य में आज्ञा-व्याकरण नामक अष्टादश (१८ वां) सर्ग समाप्त ।
आर्यसुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्यभदन्ताश्वघोषस्य महाकवेर्महावादिनः कृतिरियं ॥
आर्य सुवर्णाक्षी-पुत्र साकेत-निवासी महाकवि महावाग्मी भिक्षु आचार्य भदंत अश्वघोष की यह कृति ।